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स्वयं बुद्ध ने कहा - 'महाराज, परिताप मत कीजिए । दृढ़ बनिए। आप परलोक के मित्र रूप यति धर्म का प्राश्रय ग्रहण कीजिए । एक दिन का भी यति धर्मपालन करने वाला मोक्ष तक प्राप्त कर सकता है, स्वर्ग की तो बात ही क्या ?'
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( श्लोक ४५०-४५१) महाबल ने दीक्षा लेना स्थिर कर अपने पुत्र को इस प्रकार सिंहासन पर बैठाया जैसे मन्दिर में प्रतिमा स्थापित की हो । दीन और अनाथ पर अनुकम्पा कर उन्होंने इतना दान दिया कि उस नगर में कोई दीन रहा ही नहीं । द्वितीय इन्द्र की भांति उन्होंने समस्त चैत्यों में विचित्र वस्त्रादि, माणिक, स्वर्ण और पुष्पों से ग्रर्हत देवों की पूजा की। तत्पश्चात् स्वजन - परिजनों से क्षमायाचना कर मुनिदेवों से मोक्षवासियों की सखीरूप दीक्षा ग्रहण कर ली । समस्त दोषों का परिहार कर उस राजर्षि ने चतुर्विध प्रहार का भी परित्याग किया। वे समाधिरूप अमृत निर्भर में सर्वदा लीन रहकर कमलिनी खण्ड- सा किंचित् भी म्लान नहीं हुए। वे महासत्त्ववान् इस प्रकार अक्षीण कान्तिमय होने लगे मानो वे उत्कृष्ट ग्राहार ग्रहण करते हों । बाईस दिनों में अनशन के पश्चात् उन्होंने पञ्च परमेष्ठी का स्मरण करते हुए काल धर्म ग्रहण किया ।
( श्लोक ४५२ - ४५९ )
चतुर्थ भव
संचित पुण्यबल से धनश्रेष्ठी का जीव उसी मुहुर्त में दुर्लभ ईशान कल्प में अश्व के समान वेग से जा पहुंचा एवं वहां श्रीप्रभ विमान में देव शय्या पर उसी प्रकार उत्पन्न हो गया जैसे मेघ में विद्युत उत्पन्न होती है । वहां दिव्य प्राकृति, समचतुरस्र संस्थान, सप्तधातुरहित शरीर, शिरीष पुष्प-सी कोमलता, दिक् समूह के अन्तर्भाग को देदीप्यमान करने जैसी कान्ति, वज्र-सी काया, अदम्य उत्साह, पुण्य के सर्वलक्षण, इच्छानुरूप रूप, प्रवविज्ञान, समस्त विज्ञान में पारंगता, ग्रणिमादि ग्रष्ट-सिद्धि की प्राप्ति, निर्दोपिता, और वैभव इस प्रकार समस्त गुण सहित ललितांग नामक सार्थक नामा देव हुए । उनके पांवों में रत्न मंजीर, कमर में कटिभूषण,