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है । विवाह के समय वर-वधू को पति-पत्नी कहा जाता है। वे यदि क्षणिक हैं, नाशवान् हैं तब तो दूसरे मुहूर्त में पति पति नहीं रहेगा और पत्नी पत्नी नहीं रहेगी। इस प्रकार वस्तु को क्षणभंगुर कहना महान् मूढ़ता है। एक मुहर्त में जो कुकर्म करता है दूसरे मुहर्त में वह भिन्न व्यक्ति में रूपान्तरित हो जाता है तब तो फिर वह उसका फल-भोग नहीं करेगा। यदि इस प्रकार होता है तब तो कृत का नाश और प्रकृत का आगमन, ये दो दोष उत्पन्न हो जाते हैं।'
(श्लोक ३७७-३८३) तब महामति मन्त्री बोले-'यह समस्त माया है। तत्त्वतः यह सब कुछ नहीं है। जो सब वस्तुए हम देखते हैं वे स्वप्न या मृगतृष्णा की भाँति मिथ्या हैं। गुरु-शिष्य, पिता-पुत्र, धर्म-अधर्म, अपना-पराया यह सब व्यवहार मात्र है-तत्त्वत: यह सब कुछ नहीं है । एक शृगाल एक टुकड़ा मांस लेकर नदी के तट पर आया था । उसने जल में मछली तैरती देखी । तब वह मांस खण्ड छोड़कर मछली पकड़ने गया। मछली गहन जल में उतर गयी । तब वह उस मांस खण्ड को लेने दौड़ा तो देखा मांस खण्ड को चील ले गयी है। इस प्रकार जो प्राप्त वैषयिक सुख को छोड़कर परलोक के सुख के पीछे दौड़ते हैं वे इतः नष्ट ततः भ्रष्ट होकर आत्मा को ही प्रवंचित करते हैं। धर्मध्वजियों का व्यर्थ उपदेश सुनकर लोग नरक के भय से भीत होते हैं और मोहग्रस्त होकर व्रतादि पालन कर शरीर को कष्ट देते हैं। नरक-गमन के भय से इनकी तपस्या वैसी ही होती है जैसे लावक पक्षी जमीन पर गिर जाने के भय से एक पांव से नृत्य करता है।'
__ (श्लोक ३८४-३८९) तब स्वयंबृद्ध बोले-'यदि वस्तु सत्य नहीं है तब प्रत्येक को निज-निज कर्म का कर्ता कैसे कहा जा सकता है ? यदि सब कुछ माया है तो स्वप्न में प्राप्त हाथी (प्रत्यक्ष की भाँति) व्यवहार में क्यों नहीं पाता ? यदि तुम पदार्थ के कार्य कारण भाव को अस्वीकार करते हो तो वज्रपात से भय क्यों खाते हो? यदि कुछ भी अस्तित्व नहीं है तो तुम-मैं, वाच्य-वाचक यह भेद ही नहीं रहेगा और व्यवहार प्रवत्त क इष्ट प्राप्ति कैसे सम्भव होगी ? हे राजन्, विनण्डावाद में पण्डित शुभ परिणाम विमुख और विषयकामी व्यक्तियों द्वारा नमित न हों। विवेक द्वारा विचार कर विषय को