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दूर से ही परित्याग कर इहलोक और परलोक में सुखदानकारी धर्म का प्राश्रय ग्रहण करिए।
(श्लोक ३९०-३९४) इस प्रकार मन्त्रियों का पृथक्-पृथक् मतवाद सुनकर स्वाभाविक निर्मलता के लिए कान्तिसम्पन्न महाराज महाबल बोले-- 'हे बुद्धिमान स्वयंबुद्ध, तुम बहुत अच्छे हो। तुमने धर्म का प्राश्रय ग्रहण करने को जो कुछ कहा ठीक कहा। मैं भी धर्मद्वेषी नहीं हूं। किन्तु जिस प्रकार मन्त्रास्त्र युद्ध में ही ग्रहण किया जाता है उसी प्रकार धर्म समय होने पर ही ग्रहण किया जाता है। अनेक दिनों के पश्चात् आगत मित्र से यौवन का उपभोग किए बिना कौन उसकी उपेक्षा करता है? तुमने जो धर्म उपदेश दिया वह असामयिक है। जिस समय मधुर वीणा बज रही हो उस समय वेद मन्त्र का उच्चारण शोभा नहीं देता। धर्म का फल परलोक है । वह सन्देहास्पद है । इसलिए तुम इस लोक के सुख भोग का निषेध क्यों करते हो ?'
(श्लोक ३९५-३९९) महाराज महाबल का वचन सुनकर स्वयंबुद्ध करबद्ध होकर बोले-'महाराज, पावश्यक धर्म के फल में शंका करना कभी उचित नहीं है। शायद आपको याद होगा बाल्यकाल में एक दिन जबकि हम नन्दन वन गए थे तब एक कान्तिसम्पन्न देवता से हम मिले थे। उस देवता ने प्रसन्न होकर आपको कहा था-'मैं तुम्हारा पितामह हूं। मेरा नाम अतिबल है । मैंने भीत होकर असत् बन्धु की भांति विषय सुख से विरक्त बन राज्य का तृणवत् परित्याग कर रत्नत्रय ग्रहण किया था। अन्तिम समय में भी रत्नरूपी प्रासाद के कलश रूपी त्याग भाव को स्वीकार कर उस शरीर का परित्याग किया था। उसी के फलस्वरूप लान्तकाधिपति देव बना हूँ। अत. तुम भी असार संसार में प्रमादी बन कर मत रहना । ऐसा कहकर वे विद्युत् की भाँति स्व-प्रभा से अाकाश पालोकित करते हुए प्रस्थान कर गए। इसलिए हे राजन् ! आप अपने पितामह के कथन पर विश्वास कर परलोक है यह स्वीकार कीजिए। कारण, जहां प्रत्यक्ष प्रमाण ही रहा हुप्रा है वहां अन्य प्रमाण की आवश्यकता ही क्या है?'
(श्लोक ४०-४०६) ___ महाबल बोले-'तुमने मेरे पितामह की बात स्म करवा कर खूब अच्छा किया। अब मैं धर्म-अधर्म जिसका कारण है उस परलोक को स्वीकार करता हूँ।
(श्लोर ४०७)