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प्रयत्न करना है तब तक वह चेतन नाम से अभिहित होता है। विनष्ट होने के बाद चेतन का पुनर्जन्म नहीं होता। यह बात बिलकुल युक्ति-संगत नहीं है कि जो प्राणी मरता है वह पुनर्जन्म ग्रहण करता है। यह सब तो मात्र कहने की बात है। हमारे प्रभु शिरीष कुसुम तुल्य कोमल शय्या पर शयन करते रहें, रूप लावण्यमयी रमणियों के साथ निःसंकोच रमण करते रहें, अमृत तुल्य भोज्य पदार्थ और पेय का आस्वादन करते रहें ऐसी हमारी अभिलाषा है। जो इनका विरोध करते हैं वे प्रभुद्रोही कहलाते हैं । हे प्रभु, आप कपूर, अगरु, कस्तूरी और चन्दनादि का सर्वदा विलेपन करिए ताकि आप सुगन्ध के साक्षात् अवतार लगें। हे राजन्, उद्यान, वाहन, दुर्ग और चित्रशाला आदि जो नेत्रों को प्रानन्द देते हैं उन्हें बार-बार अवलोकन करिए। हे स्वामी, वीणा, बांसुरी, मृदंग आदि की ध्वनि और उसके साथ गाए गए मधुर गान अापके कर्णकुहरों के लिए रसायन रूप बनें । जब तक जीवन है तब तक विषय सुख का सेवन करिए । धर्मकर्म के नाम पर अनावश्यक कष्ट मत सहन कीजिए। संसार में धर्म-अधर्म का कोई फल नहीं है।
(श्लोक ३२४-३४५) __संभिन्नमति की बात सुनकर स्वयंबुद्ध कहने लगे- 'उन नास्तिकों को धिक्कार है जो स्वयं को एवं अन्य को, जिस प्रकार अन्धा अपने अनुयायी व्यक्ति को कुए में डलवा देता है उसी प्रकार ऐसी बातें बनाकर, दुर्गति में डालता है। जिस प्रकार दुःख-सुख स्वसंवेदन से जाना जाता है उसी भांति आत्मा भी स्वसंवेदन से ही जाना जाता है। जैसे स्वसंवेदन में कहीं बाधा नहीं उसी प्रकार आत्मा का निषेध करना भी किसी के लिए सम्भव नहीं है। 'मैं सुखी हूं', 'मैं दु:खी हूँ' इस प्रकार की अबाधित प्रतीति यात्मा के सिवाय और कोई नहीं कर सकता। इस प्रकार के ज्ञान से स्वशरीर में जब आत्मा सिद्ध होती है तब अनुमान द्वारा अन्य के शरीर में भी अात्मा है यह सिद्ध होता है। जो प्राणी मरता है वह पून: जन्म ग्रहण करता है इससे बिना किसी सन्देह के यह प्रमाणित होता है कि चेतना का परलोक भी है। जिस प्रकार चेतना बाल्य से यौवन को प्राप्त होती है यौवन से वार्द्धक्य प्राप्त करती है उसी प्रकार चेतना एक जन्म से दूसरा जन्म भी ग्रहण करती है। पूर्व जन्म की स्मृति