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और विनोद की कथाएं सुनाकर खुश करते हैं। बदरी वृक्ष के साथ रहकर जिस प्रकार कदली वृक्ष अच्छा फल नहीं देता उसी प्रकार कूसंगतिरत कुलीन व्यक्ति का भी कभी कल्याण नहीं होता। इसलिए हे कुलीन स्वामी, आप प्रसन्न होकर विचार करें । पाप स्वयं भी ज्ञानी हैं। आप इसलिए मोह में पतित न हों। प्रासक्ति का परिहार कर अपने चित्त को धर्म में संलग्न करिए। छायाहीन वृक्ष, जलहीन सरोवर, सुगन्धहीन फूल, दन्तहीन हाथी, लावण्यहीन रूप, मन्त्रीहीन राजा, विप्रहीन चैत्य, चन्द्रहीन रात्रि, चरित्रहीन साधु, शस्त्रहीन सैन्य, नेत्रहीन मुख जिस प्रकार शोभा नहीं देता उसी प्रकार धर्महीन पुरुष भी शोभा नहीं देता। चक्रवर्ती राजा भी यदि अधर्मी होता है तो वह वहाँ जन्म लेता है जहाँ सड़े हुए अनाज का मूल्य राज्य सम्पदा-सा होता है । महाकुल में उत्पन्न होकर जो धर्माचरण नहीं करता वह अन्य जन्म में कुत्त की भाँति अन्य का उच्छिष्ट भक्षण कर ही जीवन धारण करता है । ब्राह्मण भी यदि धर्महीन हो तो वह भी पाप संचय कर बिलाव की भाँति कुक्रियाकारी होकर म्लेच्छ योनि में जन्म लेता है । भव्य जीव भी यदि धर्महीन होता है तो बिलाव, सर्प, सिंह, बाघ, गिद्ध ग्रादि तिर्यक् योनि में कितने ही जन्म व्यतीत कर नरक में जाते हैं। वहाँ वैर के द्वारा क्रुद्ध व्यक्तियों की भाँति परमाधामिक देवताओं के द्वारा नाना रूप पीड़ित होते हैं। शीशा जिस प्रकार अग्नि में गल जाता है उसी प्रकार अनेक व्यसनों की अग्नि में अधार्मिक व्यक्ति का शरीर भी गल जाता है । इसलिए ऐसे अधामिक व्यक्तियों को धिक्कार है ! धर्म परम बन्धु की भाँति सुख देता है और नौका की भाँति विपद्रूप नदी पार करने में सहायक बनता है । जो धर्म उपार्जन करता है वह मनुष्यों में शिरोमणि होता है और लता जैसे वक्ष का प्रावय लेती है उसी प्रकार सम्पदा उसका पाश्रय लेती है । प्राधि, व्याधि, विरोध ग्रादि दु:ख के कारण हैं। जिस प्रकार जल से अग्नि बुझ जाती है उसी प्रकार ये सब भी धर्म से विनष्ट हो जाते हैं। समस्त शक्ति द्वारा कृत धर्म अन्य जन्म में कल्याण और सम्पत्ति प्राप्ति में धरोहर स्वरूप होते हैं। हे स्वामी, और अधिक मैं पापको क्या बोलू ! जिस प्रकार बांस की सीढ़ी द्वारा प्रासाद के शिखर पर चढ़ा जाता है उसी प्रकार धर्म की महायता से लोकाग्रभाग में स्थित मोक्ष धाम में जाया जाता है। धर्म के