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[२५ सद्मार्ग पर नहीं ले जाता है तब मुझमें और विदूषक मन्त्री के मध्य पार्थक्य ही क्या रहा ? अतः उचित है राजा की विषयासक्ति का ह्रास कर उन्हें सत्पथ पर ले जाना । क्योंकि राजागण जल प्रणाली की भाँति मंत्रीगण जिस पथ पर ले जाते हैं उसी पथ पर चलते हैं। जो स्वामी के व्यसन द्वारा स्वयं का निर्वाह करते हैं वे इस विचार से क्रुद्ध हो सकते हैं किन्तु मेरे लिए तो उचित है उन्हें सयुक्ति देना। कारण मृग के भय से क्या हम खेत में बीज-वपन करने से निरस्त रहेंगे ?
(श्लोक २८५-२९३) बुद्धिमानों के मध्य अग्रणी स्वयंबद्ध मंत्री इस प्रकार चिन्तन कर करबद्ध होकर महाबल से बोले-'महाराज, यह संसार समुद्रवत् है। जिस प्रकार नदी के जल से समुद्र तृप्त नहीं होता, समुद्र जल से बड़वानल, जीवों से यमराज, ईधन से अग्नि उसी प्रकार विषय सुख-भोग से प्रात्मा कभी तृप्त नहीं होता। नदी तट की छाया, दुष्टों की संगति, विष, विषय और सादि प्राणियों का अधिक मान्निध्य सर्वथा दुःखदायी होता है। उपभोग के समय कामोपभोग सुखदायी लगते हैं किन्तु परिणाम में रसहीन ही होते हैं । जलाने से जिस प्रकार दाद बढ़ता जाता है उसी प्रकार कामोपभोग सेवन से असन्तोप ही बढ़ता है। कामदेव नरक का दूत है, व्यसन का मागर है, विपत्ति रूप लता का अंकुर है और पाप रूपी वृक्ष को वर्द्धन करने वाला है । कामदेव के मद में मतवाला मनुष्य सदाचार पूर्ण मार्ग से भ्रष्ट होकर भव-संसार रूप गह्वर में पतित होता है। चहा जब घर में प्रवेश करता है तो स्थान-स्थान पर बिल बना देता है उसी प्रकार कामदेव भी जब शरीर में प्रवेश करता है तब अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष रूप पुरुषार्थ में स्थान-स्थान पर छिद्र कर देता है अर्थात् विनष्ट कर देता है।
_ स्त्रियाँ विषाक्त लता की भाँति देखने से, स्पर्श करने से और उपभोग करने से व्यामोह सृष्टि करती हैं। वे कालरूपी व्याध के जाल की भाँति हैं । इसीलिए मनुष्य रूप हरिण के लिए महा अनिष्टकारी हैं । जो विलास-व्यसन के मित्र हैं वे केवल भोजन-पान और स्त्रीविलास के मित्र हैं। इसलिए वे लोग कभी भी अपने प्रभु के परलोक की हित की चिन्ता नहीं करते । उन्हीं स्वार्थ-परायणों का दल चाटुकार और लम्पट होता है। वे अपने प्रभु को स्त्रीकथा, नाच-गान