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________________ २४] आत्म-स्वरूप में लीन कर शरीर और वाणी को नियमित कर दुःसह परिषह सहन करने लगे। मैत्री, करुणा, मध्यस्थ आदि भावनाओं में जिनकी ध्यान धारणा वद्धित हो गई है वे शतबल राजषि महानंद में इस प्रकार अवस्थान करने लगे जैसे वे मोक्षानन्द में अवस्थित हों। ध्यान और तपस्या निरत वे महात्मा प्रायु के अवसान होने पर लीलामात्र में ही स्वर्ग में देवता रूप में उत्पन्न हुए। (श्लोक २७४-२७९) महाबलकुमार बलवान विद्याधरों की सहायता से इन्द्र की भाँति पृथ्वी का अखण्ड शासन करने लगे। हंस जिस प्रकार कमलिनीवन में आनन्द से क्रीड़ा करता है उसी प्रकार वे भी रमरिणयों के साथ पुष्पोद्यान में प्रानन्दक्रीड़ा करने लगे। उनकी राजधानी में नियमित संगीत की झंकार उठती जो कि वैताढ्य पर्वत पर प्रतिध्वनित होकर ऐसी लगती मानो गिरि कन्दराए उस संगीत का अभ्यास कर रही हैं। आगे-पीछे, दाएं-बाएँ रमणियों से परिवृत वे साक्षात् शृगार रस की भाँति सुशोभित होने लगे । स्वच्छन्द भाव से विषय क्रीड़ा में मग्न होकर उनके दिन-रात विषवत् रेखा स्थित समभाव दिवा-रात्रि की भाँति व्यतीत होने लगे। (श्लोक २८०-२८४) एक दिन सामंत और मन्त्रियों से अलंकृत होकर महाबल कुमार मरिणस्तम्भ की भांति सभास्थल में बैठे थे । अन्यान्य सभासद् भी अपने-अपने स्थान पर अधिष्ठित थे। वे महाबलकुमार को एक दृष्टि से इस भाँति देखने लगे जैसे योगसाधना के लिए वे ध्यान करने जा रहे हों। स्वयंबुद्ध, संभिन्नमति, शतमति और महामति नामक चार मुख्यमन्त्री भी वहाँ उपस्थित थे। इनमें स्वयं बुद्ध मन्त्री स्वामिभक्ति में अमृतसागरवत् थे, बुद्धि में रोहणाचल पर्वत की भाँति और सम्यक् दृष्टि सम्पन्न थे। वे सोचने लगे-यह दुःख का विषय है कि हमारे विषयासक्त राजा को इन्द्रिय रूपी दुष्ट अश्व आकृष्ट कर लिए जा रहे हैं। मुझे धिक्कार है कि मैं इसकी उपेक्षा कर रहा हूँ। विषय के आनन्द में आसक्त हमारे प्रभु का जोवन व्यर्थ नष्ट हो रहा है यह देखकर जैसे अल्प जल में मीन दुःखी हो जाती है मैं भी उसी प्रकार दुःखित हूँ । यदि मेरे जैसा मन्त्री राजा को
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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