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जानकर कि भरत को केवल ज्ञान हो गया है उनके निकट पाए । भक्त पुरुष स्वामी की तरह ही स्वामी-पुत्र की भी सेवा करते हैं; किन्तु जब पुत्र को भी केवल-ज्ञान प्राप्त उत्पन्न हो गया तब तो कहना ही क्या ? इन्द्र वहाँ आकर उनसे बोले-'हे केवलज्ञानी ! आप साधु वेष धारण करें ताकि मैं आपकी वन्दना कर और दीक्षा महोत्सव कर।' भरत ने भी उसी समय बाहुबली की तरह पञ्चमुष्टिक केश लुञ्चन रूप दीक्षा का लक्षण अङ्गीकार किया और देवताओं द्वारा प्रदत्त रजोहरण आदि उपकरण स्वीकार किए। तब इन्द्र ने उनकी वन्दना की । कारण, केवल-ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भी अदीक्षित पुरुष को वन्दना नहीं की जाती। उस समय महाराजा भरत चक्रवर्ती के आश्रित दस हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली। कारण, इस प्रकार की स्वामी-सेवा परलोक में भी सुखकारी होती है।
(श्लोक ७३९-७४५) तदुपरान्त पृथ्वी का भार वहन करने में समर्थ भरत चक्रवर्ती के पुत्र प्रादित्ययशा को इन्द्र ने राज्याभिषेक किया। (श्लोक ७४६)
केवल ज्ञान होने के पश्चात् महात्मा भरतमुनि ने ऋषभ स्वामी की तरह ही ग्राम, खनि, नगर, अरण्य, गिरि, द्रोणमुख आदि में धर्म देशना से भव्य प्राणियों को प्रतिबोध देते हुए साधु परिवार सहित एक लाख पूर्व तक विहार किया। अन्ततः उन्होंने भी अष्टापद पर्वत पर जाकर विधि सहित चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान किया। एक मास पश्चात् चन्द्र जब श्रवण नक्षत्र में था तब चतुष्क अर्थात् अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य को प्राप्त कर महर्षि भरत सिद्धि क्षेत्र अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त
(श्लोक ७४७-७५०) इस प्रकार भरतेश्वर ने सत्तहत्तर लक्ष पूर्व राजकुमार की तरह व्यतीत किए। उस समय पृथ्वी का पालन भगवान ऋषभ कर रहे थे। भगवान दीक्षा लेकर छद्मस्थ अवस्था में एक हजार वर्ष रहे। तब भरत ने एक हजार मांडलिक राजा की तरह व्यतीत किए। एक हजार वर्ष कम छह लाख पूर्व वे चक्रवर्ती रहे। केवल. ज्ञान उत्पन्न होने के बाद विश्व का उपकार करने के लिए दिन के सूर्य की तरह एक पूर्व तक उन्होंने पृथ्वी पर विहार किया। इस भांति चौरासी लाख पूर्व प्रायुप्य उपभोग कर महात्मा भरत मोक्ष पधार
हुए।