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________________ ३२२] २४ सिद्धार्थ राजा के पुत्र त्रिशला माता के हृदय आश्वासन रूप और सिद्धि प्राप्ति के अर्थ को सिद्ध करने वाले हे महावीर प्रभो! मैं आपकी वन्दना करता हूं। (श्लोक ६५४-६७७) इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर को स्तुतिपूर्वक नमस्कार कर महाराज भरत इस सिंह निषद्य चैत्य से बाहर निकले और प्रिय मित्र की भांति उस सुन्दर चैत्य को पीछे घूम-घूमकर देखते हुए अष्टापद पर्वत से नीचे आए। उनका मन पर्वत में संलग्न रहने से मानो उत्तरीय कहीं अटक गया हो इस प्रकार अयोध्यापति मन्द गति से अयोध्या की ओर गए। शोक से पूर की तरह सेना के पदोत्थित धूलि से दिक्समूह को पाकुल कर शोकार्त चक्रवर्ती अयोध्या के निकट पहुँचे । चक्री के मानो सहोदर हों इस प्रकार उनके दुःख से अत्यन्त दुःखी नगर जनों की अश्रु भरी आँखों से सम्मानित होकर महाराज ने विनीता नगरी में प्रवेश किया। (श्लोक ६७८-६८२) तत्पश्चात् भगवान् को याद करते हुए वर्षा के बाद अवशेष मेघ की तरह अश्र-बिन्दु गिराते हुए वे राजमहल पाए। जिसका द्रव्य लुट जाता है ऐसा मनुष्य जिस प्रकार रात-दिन उसी का ध्यान करता है उसी प्रकार प्रभु रूप धन लुट जाने से भरत उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते, बाहर-भीतर, दिन-रात प्रभु का ही ध्यान करते। किसी कारणवश अष्टापद से आगत मनुष्य को जैसे प्रभु का कोई समाचार लाया है, सोचकर पूर्व की तरह ही सम्मान देने लगे। (श्लोक ६८३-६८५) महाराज को इस प्रकार शोकाकूल देखकर मन्त्री उनसे बोले -महाराज, पिता ऋषभदेव प्रभु ने गहस्थाश्रम से ही पशु की तरह अज्ञानी लोगों को व्यवहार शिक्षा दी, तदुपरान्त दीक्षा ली और अल्प समय के मध्य ही केवल-ज्ञानी हो गए । केवल-ज्ञान प्राप्त कर इस जगत के मनुष्यों को भव समुद्र से पार करने के लिए धर्म में नियुक्त किया। फिर स्वयं कृतार्थ होकर अन्य को कृतार्थ कर परम पद को प्राप्त हुए। ऐसे परम प्रभु के लिए आप शोक क्यों कर रहे हैं ? इस प्रकार उपदिष्ट होकर चक्रवर्ती धीरे-धीरे राज्य कार्य करने लगे। (श्लोक ६८६-६८९)
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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