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तरह अपनी कान्तिरूप बाहुओं के बन्धनों से परस्पर आलिंगन कर रही थीं। उस चैत्य की दीवारों पर विचित्र मणिमय गवाक्ष बनवाए गए थे। उसका प्रभा पटल ऐसा लग रहा था मानो उनके मध्य यवनिका उत्पन्न हो गई है। उनमें ज्वलित धूप की धूम्रशिखा पर्वत के ऊपर नवनिर्मित नीलचूलिका का भ्रम उत्पन्न कर रही थी।
(श्लोक ५६६-५९४) पूर्वोक्त मध्य देवछन्द पर शैलेशी ध्यानरत प्रत्येक प्रभु की स्व-स्व देह परिमारण स्व-स्व वर्णनारूप मानो प्रत्येक प्रभु ही बैठे हों ऐसी ऋषभ स्वामी आदि चौबीस अरिहंतों की निर्मल रत्नमय प्रतिमाएं निर्मित करवाकर स्थापित करवायीं। उनमें सोलह प्रतिमाएं रत्नों की, दो प्रतिमा राजवर्त रत्न की (श्याम), दो स्फटिक रत्न की (श्वेत), दो वैदूर्यमणि की (नील) और दो शोरण मरिण की (लाल) थीं। इन सब प्रतिमाओं के रोहिताक्ष मणियों के (लाल) प्राभासयुक्त अङ्क रत्नमय (श्वेत) नाखून थे और नाभि, केशमूल, जीभ, तालू, श्रीवत्स, स्तनाग्रभाग और हाथ पावों के तलुए स्वर्ण के (लाल) थे। आँखों की पुतलियाँ, पलकें, रोए, भौहें और मस्तक के केश रिष्ट रत्नमय (श्याम) थे। प्रोष्ट प्रवालमय (लाल), दाँत स्फटिक रत्नमक (श्वेत), मस्तम वज्रमय, नासिका का भीतरी भाग रोहिताक्ष मणि (लाल) के ग्राभासयुक्त स्वर्ण का था । प्रतिमा के नेत्र लोहिताक्ष मणि के प्रान्त भागयुक्त और अङ्कमणि द्वारा निर्मित थे। इस भाँति अनेक प्रकार की मरिणयों से निर्मित वे प्रतिमाएं अपूर्व शोभा धारण कर रहीं थीं। (श्लोक५९५-६०२)
प्रत्येक प्रतिमा के पीछे यथायोग्य परिमारण रत्नमयी पुत्तलिका रूपी छत्रधारिणियाँ थीं । प्रत्येक पुत्तलिका के हाथ में कुरण्टक पुष्पों की मालायुक्त मुक्ता तथा प्रवाल से गुथा और स्फटिक मरिण का दण्डयुक्त श्वेत छत्र था। प्रत्येक प्रतिमा के दोनों पोर रत्नों की चामरधारिणी दो-दो पुत्तलिकाएँ थीं। युक्तकर खड़ी उज्ज्वल शरीरी उन नागादि देवियों की रत्नमय पुत्तलिकाएं इस प्रकार शोभित हो रही थीं मानो देवियाँ ही वहाँ बैठी हुई हैं।
(श्लोक ६०३-६०७) देवछन्दों के ऊपर उज्ज्वल रत्नों के चौबीस घण्टे, संक्षिप्त किए सूर्य बिम्ब-से माणिक्य के दर्पण, उनके निकट योग्य स्थानों पर