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वलीन्द्र ने बायीं ओर के नीचे की दाढ़ ली। अन्य इन्द्रों ने प्रभु के दाँत ग्रहण किए और अन्य देवों ने अस्थियाँ ग्रहण की। उस समय जिन श्रावकों ने अग्नि चाही उन्हें देवों ने तीनों चिताओं की अग्नि दी । उस अग्नि को ग्रहणकारी श्रावक अग्निहोत्री ब्राह्मण कहलाए। वे अपने घर जाकर प्रभु की चिताग्नि की सर्वदा पूजा करने लगे और धनपति जैसे निर्वात प्रदेश में लक्ष्मी का प्रदीप रखते हैं उसी प्रकार वे भी अग्नि की रक्षा करने लगे । इक्ष्वाकु वंश के मुनियों की चिताग्नि यदि शान्त होने लगती तो उसे प्रभु की चिताग्नि से वे प्रज्वलित कर देते। यदि अन्य साधुओं की चिताग्नि शान्त होने लगती तो इक्ष्वाकुवंशीय मुनियों की चिताग्नि से प्रज्वलित करते; किन्तु अन्य साधुओं की चिताग्नि को प्रभु एवं इक्ष्वाकुवंशीय मुनियों की चिताग्नि के साथ संक्रमण नहीं करते । यही विधि ब्राह्मणों में अब भी चल रही है। कोई-कोई प्रभु की चिताग्नि से भस्म लेकर भक्ति-भाव से उसकी वन्दना करने लगे और देह पर मलने लगे। इससे भस्म भूषणधारी तापसों का उद्भव हुा । फिर मानो अष्टापद गिरि के तीन नवीन शिखर हों ऐसे उन चिताओं के स्थान पर देवताओं ने रत्नों के तीन स्तूप निर्मित किए। वहाँ से देवगणों ने नन्दीश्वर द्वीप जाकर अष्टाह्निका महोत्सव किया तदुपरान्त इन्द्र सहित सभी देव अपने-अपने स्थान को चले गए । वहाँ वे स्व-विमानों में सुधर्मा सभा के मध्य मानवक स्तम्भ पर वज्रमय गोल पेटिकाओं में प्रभु के दाँत रखकर प्रतिदिन उसकी पूजा करने लगे। इसके प्रभाव से उनका सर्वदा विजय मंगल होने लगा । (श्लोक ५४५-५६५)
महाराज भरत ने प्रभु के संस्कार स्थान के निकट जमीन पर तीन कोस ऊँचे मानो मोक्ष-मन्दिर की वेदिका हो ऐसा सिंह निषद्या नामक प्रासाद (मन्दिर) रत्नमय पाषाणों से वर्द्धकीरत्न द्वारा निर्मित करवाया। उसके चारों ओर प्रभु के समवसरण की तरह स्फटिक रत्नों के चार रमणीय द्वार बनवाए और प्रत्येक द्वार के दोनों ओर शिवलक्ष्मी के भण्डार की तरह रक्त चन्दन के गोल कलश निर्मित करवाए। प्रत्येक दरवाजे पर मानो साक्षात् पुण्यवल्लरी हों ऐसे सोलह-सोलह रत्नमय तोरण बनवाए। प्रशस्ति लिपि की तरह अष्ट मंगल की सोलह-सोलह पंक्तियाँ बनवायीं और जैसे चार दिक्पालों की सभा ही वहाँ ले पाए हों ऐसे विशाल मुख्य