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उसी प्रकार महाराज भरत की शोक ग्रन्थि भी टूट गई। उस समय देव, असुर और मनुष्य तीनों का क्रन्दन इस प्रकार लगता था मानो त्रिलोक में करुण रस का एकछत्र राज्य स्थापित हो गया है । उसी समय से संसार में प्राणियों के शोक जात शल्य को विशल्य करने के लिए रोना प्रचारित हुप्रा । राजा भरत स्वाभाविक धैर्य का भी परित्याग कर दुःखित हो तिर्यकों को भी रुलाते हुए इस प्रकार विलाप करने लगे :
( श्लोक ४९३ - ५०१ ) 'हे पित: ! हे जगद् बन्धु ! हे कृपारससागर ! मुझ जैसे अज्ञानी को इस संसार रूपी अरण्य में कैसे छोड़ गए ? दीप बिना जिस प्रकार अन्धकार में नहीं रहा जा सकता उसी प्रकार केवलज्ञान से सर्वत्र प्रकाश फैलाने वाले आपके बिना हम इस संसार में किस प्रकार रह सकेंगे ? हे परमेश्वर ! छद्मस्थ प्राणियों की तरह आपने मौन क्यों धारण कर रखा है ? मौन परित्याग कर प्राप देशना देकर क्या मनुष्यों पर कृपा नहीं करेंगे ? हे प्रभु! आप मोक्ष जा रहे हैं इसीलिए बोल नहीं रहे हैं; किन्तु मुझे दुःखी देख कर भी मेरे ये बन्धुगण मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे हैं ? हाँ-हाँ, मैं समझ गया । ये तो स्वामी के ही अनुगामी हैं । जब स्वामी ही नहीं बोल रहे हैं तो ये कैसे बोलेंगे ? ओह ! मुझे छोड़कर ऐसा और कोई नहीं है जो श्रापका अनुयायी नहीं हुआ। तीन लोक की रक्षा करने वाले प्राप बाहुबली आदि मेरे छोटे भाई, ब्राह्मी, सुन्दरी बहिनें, पुण्डरीक आदि पुत्र, श्र ेयांस आदि पौत्र कर्मरूपी शत्रुत्रों को विनष्ट कर मोक्ष चले गए, किन्तु मैं अभी भी जीवन को प्रिय समझ कर बचा हुआ हूं ।'
( श्लोक ५०३ - ५०९) शोक से निर्वेद प्राप्त कर चक्री को मृत्यु के लिए उन्मुख देख इन्द्र ने उन्हें समझाना शुरू किया- 'हे महासत्त्व भरत ! हमारे स्वामी ने स्वयं संसार समुद्र को पार किया है और अन्य को भी पार होने में सहायता करते हैं । तट के द्वारा महानदी की तरह इनके प्रवर्तित धर्म से संसारी जीव संसार समुद्र प्रतिक्रम करेंगे । ये प्रभु स्वयं कृतकृत्य हुए हैं और अन्यों को कृतार्थ करने के लिए एक लक्ष पूर्व पर्यन्त दीक्षावस्था में रहे । हे राजन्, समस्त लोगों पर अनुग्रह कर मोक्षगमनकारी इन जगत्पति के लिए आप शोक क्यों कर रहे हैं ? शोक उसके लिए करना उचित होता है जो मरकर महादुःखों के गृह रूप चौरासी लाख योनि में बार-बार भ्रमण करते