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लाख जन्मों में उपार्जित कर्म भी प्रापके दर्शनों से विनष्ट हो जाते
हैं । हे प्रभु, एकान्त सुखम काल से सुखम- दुःखम काल अच्छा है क्योंकि उस समय कल्पवृक्ष से भी अधिक फल प्रदान करने वाले श्राप उत्पन्न हुए हैं । हे सवं भुवनों के स्वामी, जिस प्रकार राजा ग्राम और नगर में अपने राज्य को भूषित करते हैं उसी प्रकार आप भी इस भुवन (भरतवर्ष) को भूषित करते हैं । जो उपकार पिता-माता गुरु और स्वामी सब मिलकर भी नहीं कर सकते ऐसा उपकार आप एक होकर भी अनेक की तरह करते हैं । चन्द्र से जैसे रात्रि शोभित होती है, हंस से सरोवर, तिलक से मुख, उसी प्रकार प्राप से भुवन शोभा पाता है ।
( श्लोक २६३ - २७० )
इस प्रकार यथाविधि भगवान का स्तव कर विनयी राजा भरत ने स्वयोग्य स्थान ग्रहण किया ।
फिर भगवान् ने एक योजन पर्यन्त सुनी जा सके और सब भाषा में समझी जा सके ऐसी विश्व कल्याणकारी देशना दी । देशना की समाप्ति पर भरत ने प्रभु को नमस्कार कर रोमांचित बने करबद्ध होकर निवेदन किया- ' इस भरत क्षेत्र में आपसे विश्व हितकारी और कितने धर्म चक्री होंगे ? कितने चक्रवर्ती होंगे ? हे प्रभो, उनके गोत्र, माता-पिता का नाम, आयु, परस्पर काल व्यवधान, दीक्षा पर्याय और बताइए । '
वर्ण, शरीर का मान, गति – ये सब आप
( श्लोक २७१-२७५)
भगवान् बोले, हे चक्री, इस भरत खण्ड में मेरे पश्चात् तेईस तीर्थंकर होंगे और तुम्हारे बाद ग्यारह चक्रवर्ती होंगे । उन्नीस, बीस र बाईस संख्यक तीर्थंकर गौतम गोत्रीय और अवशेष काश्यप गोत्रीय होंगे । वे सभी मोक्ष जाएँगे ।
२ प्रयोध्या में जितशत्रु राजा और विजया रानी के पुत्र प्रजित द्वितीय तीर्थंकर होंगे। उनका श्रायुष्य बहत्तर लाख पूर्व का होगा । कान्ति सुवर्ण-सी, शरीर साढ़े चार सौ धनुष ऊँचा और दीक्षा पर्याय एक पूर्वाङ्ग (चौरासी लाख वर्ष) कम एक लाख पूर्व होगा । मेरे और अजितनाथ में निर्वाणकाल के पचास लाख कोटि सागरोपम का व्यवधान होगा ।
३ जितारी राजा और सेना रानी के पुत्र सम्भव तृतीय तीर्थंकर होंगे। उनकी कान्ति सुवर्ण-सी, प्रायु साठ लाख पूर्व की, शरीर