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चाँदी के यज्ञोपवीत तैयार करवाए । अन्त में कच्चे सूत से यज्ञोपवीत बनने लगे । ( श्लोक २३७-२५)
भरत, सूर्ययशा, महायशा, प्रतिबल, बलभद्र, बलवीर्य, कीत्तिवीर्य, जलवीर्य और दण्डवीर्य इन ग्राठ पुरुषों तक यही प्राचार रहा। उन्होंने इस भरतार्द्ध राज्य का उपभोग किया और इन्द्र द्वारा प्रदत्त राजमुकुट धारण किया। बाद में अन्य राजा; हुए किन्तु मुकुट महाप्राण ( खूब वजनी ) होने के कारण वे लोग उसे धारण नहीं कर सके । कारण हाथी का भार हाथी ही वहन कर सकता है अन्य कोई नहीं । नौवें और दसवें तीर्थंकरों के मध्य साधुयों का विच्छेद हुआ और इसी प्रकार उनके बाद सात तीर्थकरों के पश्चात् शासन विच्छेद हुआ । उस समय अर्हतों की स्तुति और यति तथा श्रावकों के धर्ममय वे वेद बदल गए जिनकी रचना भरत ने को थी । तदुपरान्त सुलभा और याज्ञवल्क्य यादि द्वारा ग्रनार्य वेद रचित हुए । (श्लोक २५१-२५६)
चक्रधारी भरत श्रावकों को दान देते और शेष समय कामकीड़ा में व्यतीत करते । एक बार चन्द्र जैसे ग्राकाश को पवित्र करता है उसी प्रकार स्व-चरण रज से पृथ्वो को पवित्र करते हुए भगवान आदीश्वर अष्टापद पर्वत पर आए । देवतायों ने तत्क्षण वहाँ समवसरण की रचना की। फिर भगवान ने वहाँ देशना प्रारंभ की। अधिकारियों ने पवन वेग से ग्राकर महाराज भरत को प्रभुश्रागमन का संवाद दिया । भरत ने पूर्व की भाँति उसे पुरस्कार दिया । कहा भी गया है प्रतिदिन देते रहने पर भी कल्पवृक्ष क्षीण नहीं होता । भरत अष्टापद पर्वत पर आए और प्रभु को प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर स्तुति करने लगे : ( श्लोक २५७-२६२ ) ' हे जगत्पति, मैं ज्ञ हूँ फिर भी आपके प्रभाव से आपकी स्तुति करता हूं । कारण चन्द्रदर्शन करने वाले की मन्द दृष्टि भी सामर्थ्यवान होती है । हे स्वामी ! मोहरूप अन्धकार में निमग्न जगत् को प्रालोक प्रदान करने वाली प्रदीप की तरह एवं आकाश की तरह अनन्त प्रापका केवल ज्ञानदर्शन सर्वदा विजयी है । हे नाथ, प्रमाद रूपी निद्रा में निमग्न मेरे जैसे पुरुषों के लिए आप सूर्य की तरह बार-बार गमनागमन करते हैं । जिस प्रकार समय प्राप्त होने पर पत्थर की तरह जमा हुआ घी गल जाता है उसी प्रकार