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[२९३ धर्म के प्रति मैं कितना उदासीन हूँ । इस संसार से मुझे कितना मोह है। महापुरुषों जैसा मेरा प्राचार भी कहाँ है ?' ऐसा विचार करने पर उन प्रमादी राजा का हृदय गंगा के प्रवाह की तरह स्वल्प समय के लिए धर्म-ध्यान में प्रवेश करता; किन्तु पुनः शब्दादि इन्द्रियों के विषय में प्रासक्त हो जाता । कारण, कर्मों का भोग-फल मिटाने में कोई समर्थ नहीं है।
(श्लोक २३०-३६) __एक दिन रसोइयों के प्रमुख ने आकर निवेदन कियामहाराज, आजकल भोजन करने वालों की संख्या खूब बढ़ गयी है अत: यह जानना कठिन हो गया है कि कौन श्रावक है, कौन नहीं है । यह सुनकर भरत बोले-तुम भी श्रावक हो इसलिए आज से तुम परीक्षा कर भोजन देना। इस पर प्रमुख रसोइया भोजन के लिए आने वालों से पूछता-आप कौन हैं ? कितने व्रतों का पालन करते हैं ? जो बोलते मैं श्रावक हूँ और पाँच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रतों का पालन करता हूँ उसे वह भरत राजा के पास ले जाता । महाराज भरत ज्ञान, दर्शन, चारित्र के चिह्न रूप तीन रेखा कांकिणी रत्न से एक वैकक्ष रूप में (यज्ञोपवीत की तरह) उनकी शुद्धि के निदर्शन स्वरूप उनके वक्ष में अंकित कर देते । उस चिह्न से वे भोजन पाते और उच्च स्वर से 'जितो भवान्' आदि वाक्य बोलते । इससे वे महान् नाम से प्रसिद्ध हुए। वे अपने पुत्रों को साधुनों को देने लगे। उनमें बहुत से विरक्त होकर स्वेच्छा से व्रत ग्रहण करने लगे । और जो परिषह सहन करने में असमर्थ हो गए वे श्रावक होने लगे। कांकिणी रत्न से चिह्नित उन्हें निरन्तर भोजन प्राप्त होने लगा। राजा उन्हें भोजन कराते अतः अन्य लोग भी इन्हें भोजन कराने लगे। कारण, पूज्य-पुरुष जिसकी पूजा करते हैं उसको कौन नहीं पूजता है। उनके स्वाध्याय के लिए चको ने अर्हतों की स्तुति, मुनि तथा श्रावकों की समाचारी से पवित्र ऐसे चार वेदों की रचना की। क्रमशः वे लोग माहना की जगह ब्राह्मना नाम से प्रसिद्ध हो गए और कांकिणी रत्न से जो रेखा बनायी गयी थी वह यज्ञोपवित रूप से जानी जाने लगी। भरत राजा के स्थान पर जब उनके पुत्र सूर्ययशा सिंहासनारूढ़ हुए तब उनके पास कांकिणी रत्न नहीं रहा । अतः उन्होंने सुवर्ण यज्ञोपवीत तैयार करवाकर देना प्रारम्भ कर दिया। सूर्ययशा के पश्चात् महायशा आदि राजा हुए। उन्होंने