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रूपी मन्दिर के एक प्रदीप तुल्य अपनी एक अंगुलि भरत को दिखाई। उज्ज्वल और कान्तिमान उस अंगुलि को देखकर जिस प्रकार चन्द को देखकर समुद उल्लसित हो जाता है उसी प्रकार मेदिनीपति भरत उल्लसित हो गए। इस प्रकार भरत राजा का मान रखकर भगवान् को प्रणाम कर सन्ध्या के मेघ की तरह इन्द अन्तनिहित हो गए।
(श्लोक २१६-२२२) चक्रवर्ती भी स्वामी को नमस्कार कर करणीय कार्य के विषय में सोचते हुए इन्द की भांति अपनी अयोध्या को लौट गए। रात में उन्होंने इन्द की अंगुलि स्थापित कर वहाँ अष्टाह्निका महो. त्सव किया । कहा भी गया है-सज्जन का कर्तव्य भक्ति और स्नेह में निहित होता है। तभी से लोगों ने इन्द स्तम्भ का रोपण कर सर्वत्र इन्दोत्सव मनाना प्रारम्भ कर दिया जो कि आज भी प्रचलित है।
__ (श्लोक २२३-२२५) सूर्य जैसे एक स्थान से अन्य स्थान को जाता है उसी प्रकार भव्य जीवों को प्रबोध देने के लिए भगवान् ऋषभ स्वामी अष्टापद पर्वत से अन्यत्र विहार कर गए।
(श्लोक २२६) उधर अयोध्या में भरत ने समस्त श्रावकों को बुलाकर कहा -आप लोग खाने के लिए कृपाकर सर्वदा मेरे पास आइए । कृषि आदि कार्य का परित्याग कर निरन्तर स्वाध्याय में लीन रहकर अपूर्व ज्ञान ग्रहण करने में तत्पर रहिए । खाने के पश्चात् आप लोग नित्य मेरे पास आइए और मुझे ऐसा कहिए :
'श्राप पराजित हुए हैं, भय वद्धित हो रहा है अतः मा हन, मा हन-मारे नहीं, मारें नहीं अर्थात् प्रात्मगुण विनाश न करें।
(श्लोक २२७-२२९) चक्री की यह बात स्वीकार कर वे सदैव चक्री के घर आने लगे और प्रतिदिन खाने के पश्चात् उपर्युक्त वाक्य तत्परतापूर्वक स्वाध्याय की तरह बोलने लगे । देवताओं की तरह काम-क्रीड़ा में रत प्रमादी चक्रवर्ती उस शब्द को सुनकर इस प्रकार विचार करते'अरे, मैं किसके द्वारा पराजित हुआ हूँ ? हाँ-समझ गया, मैं कषायों के द्वारा पराजित हुया है। मेरा भय द्धित हो रहा हैं इसीलिए विवेकोजन मुझे नित्य स्मरण करवाते हैं, अात्मा का हनन मत करो। फिर भी मैं कितना प्रमादी और विषयलोलुप हूँ।