SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९०] 'हाय, यह मैंने क्या किया ? मैं सदा अग्नि की भाँति अतृप्त मना रहा । इसीलिए मैंने भाइयों के राज्य ले लिए हैं । अब यह भोगफलदायी लक्ष्मी दूसरों को देना मेरे लिए उसी प्रकार निष्फल है जिस प्रकार किसी मूर्ख का भस्म में घी डालना निष्फल हो जाता है । काक भी अन्य काकों को बुलाकर अन्नादि भक्षण करता है; किन्तु मैं अपने भाइयों को छोड़कर भोग-उपभोग करता हूँ । अतः मैं तो काक से भी हीन हूँ । मास क्षपणक जिस प्रकार किसी दिन भिक्षा ग्रहण करता है उसी प्रकार यदि मैं अपनी भोग-सम्पत्ति अपने भाइयों को दूँ तो क्या वे मेरे पुण्य के लिए उसे ग्रहण करेंगे ?' ऐसा विचार कर प्रभु के चरणों में बैठकर भरत ने करबद्ध होकर भाइयों को भोग-उपभोग करने का श्रामन्त्रण दिया । ( श्लोक १९० - १९४ ) उस समय प्रभु बोले- 'हे सरल हृदयी राजा, तुम्हारे ये भाई महासत्त्व हैं । उन्होंने महाव्रतों को पालने की प्रतिज्ञा की है । इसलिए संसार की प्रसारता ज्ञात कर त्याग किए हुए भोग को वमन किए हुए अन्न की तरह ये ग्रहण नहीं करेंगे।' इस प्रकार भोग सम्बन्धी आमन्त्रण का जब प्रभु ने निषेध किया तब पश्चात्ताप से भरे चक्री ने सोचा, मेरे ये भाई भोग-उपभोग नहीं करेंगे । फिर भी प्राण धारण के लिए आहार अवश्य ग्रहण करेंगे । ऐसा सोचकर उन्होंने पाँच सौ बड़े-बड़े शकट भरकर प्रहार मँगवाया और अपने जों को पूर्व की भाँति प्रहार ग्रहण करने का श्रामन्त्रण दिया । (श्लोक १९५-१९९) तब प्रभु बोले, 'हे भरतपति, मुनियों के लिए प्रस्तुत यह आहार मुनियों के ग्रहण करने योग्य नहीं है ।' प्रभु से यह सुनकर ऐसे भोजन के लिए मुनियों को ग्रामन्त्रण दिया जो न मुनियों के लिए तैयार था न तैयार करवाया गया था । कारण, सरलता में सब कुछ शोभा देता है । ' हे राजेन्द्र, मुनियों के लिए राज पिण्ड ग्राह्य नहीं होता ।' ऐसा कहकर धर्मचक्री प्रभु ने चक्रवर्ती को पुन: निवारित कर दिया । प्रभु ने सब प्रकार से मेरा निषेध कर दिया यह सोचकर चन्द्र जिस प्रकार राहु द्वारा दुःखी होता है उसी प्रकार महाराज पश्चात्ताप से दुःखी हुए । भरत को इस भांति दुःखी देख कर इन्द्र ने प्रभु से जिज्ञासा की - 'हे स्वामी, प्रवग्रह कितने प्रकार के हैं ?" ( श्लोक २०० - २०४ )
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy