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[२८९ है उसी प्रकार आपके आश्रित भव्यजन भी आपके समान ही हो जाते हैं । हे स्वामी, मतवाले बने इन्द्रिय रूपी हस्तियों को निर्मद करने में औषध रूप और पथ-प्रदर्शनकारी आपका शासन विजयी होता है। हे त्रिभुवनेश्वर, आप चार घाती कर्म को नष्ट कर अवशिष्ट चार कर्मों की उपेक्षा कर रहे हैं। इससे लगता है कि आप में लोक-कल्याण की भावना है। हे प्रभु, गरुड़ के पंखों पर आश्रित पुरुष जिस प्रकार समुद्र-उल्लंघन करता है उसी प्रकार आपके चरणाश्रित भव्यजन इस संसार रूपी समुद्र का लंघन करते हैं। हे नाथ, अनन्त कल्याण रूपी वृक्ष को प्रफुल्लित करने में दोहद रूप और विश्व को मोह-निद्रा से जागृत करने में प्रातःकाल के सदश्श आपके दर्शन की (तत्त्वज्ञान की) सर्वत्र जय होती है। आपके चरणकमलों के स्पर्श से प्राणियों के कर्म नाश होते हैं। कारण, चन्द्र की कोमल किरणों से भी हाथी के दांत टूट जाते हैं । मेघवारि की तरह और चन्द्र की चन्द्रिका की तरह आपकी कृपा सब पर एक सी रहती
(श्लोक १७३-१७९)
इस प्रकार प्रभु की स्तुति एवं उन्हें नमस्कार कर भरतपति सामानिक देवों की तरह इन्द्र के पीछे जाकर बैठ गए। देवताओं के पीछे समस्त महिलाएं खड़ी रहीं। प्रभु के निर्दोष शासन में जिस प्रकार चतुर्विध धर्म रहता है उसी प्रकार समवसरण के प्रथम गढ़ में चतुर्विध संघ बैठा। द्वितीय गढ़ में समस्त तिर्यंच प्राणी आदि परस्पर विरोधी स्वभाव होने पर भी मानो स्नेहशील सहोदर हों इस प्रकार शान्तिपूर्वक बैठे थे। तृतीय प्राकार में आगत राजारों के समस्त वाहन (हाथी, घोड़ा आदि) देशना सुनने के लिए उच्च कर्ण किए खड़े थे। फिर त्रिभुवनपति ने समस्त भाषा-भाषी जिससे समझ सकें ऐसी भाषा में एवं मेघ गम्भीर वाणी में देशना देनी प्रारम्भ की। देशना सुनने के समय तिर्यंच, मनुष्य, देव इस प्रकार
आनन्दित हुए मानो वे अत्यधिक भार से मुक्ति पा गए हों । या वे इष्ट पद को प्राप्त हो गए हों या उन्होंने कल्याण अभिषेक किया है या ध्यान में लीन हो गए हैं या उन्हें अहमिन्द्र पद या परब्रह्म पद प्राप्त हो गया है। देशना समाप्त होने पर महाव्रत पालनकारी अपने भाइयों को देखकर दुःखी बने भरत इस प्रकार सोचने लगे
(श्लोक १८०-१८९)