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था । अश्वारोहियों के हाथों की वर्शा से विच्छरित किरणें ऐसी लग रही थीं जैसे वे अन्य वर्शाएँ ऊँची कर रहे हैं । हस्ती पर बैठे वीर कुजर हर्ष से उच्च स्वर में गर्जन कर रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे हस्ती पर अन्य हस्ती ने आरोहण किया हो । समस्त सैनिक जगत्पति को नमस्कार करने के लिए भरत से भी अधिक उत्सुक हो रहे थे। कारण, तलवार की म्यान तलवार से भी तीक्ष्ण होती है। उनका कोलाहल द्वारपाल की तरह मध्य स्थित भरत को जैसे निवेदन कर रहा था, समस्त एकत्र हो गए हैं। (श्लोक १४९-१६२)
फिर मुनिश्वर जैसे राग-द्वेष को जीतकर मन को पवित्र करते हैं उसी प्रकार महाराज ने स्नान कर अंगों को स्वच्छ किया एवं प्रायश्चित और कौतुक मंगल कर निज चारित्र-सा उज्ज्वलवस्त्र धारण किया। मस्तक स्थित श्वेत छत्र और दोनों दिशाओं के श्वेत चवरों से सुशोभित होकर महाराज अपने प्रासाद के बाहरी अलिन्द में गए और वहाँ हाथी पर इस प्रकार चढ़े जैसे सूर्य
आकाश में चढ़ता है। भेरी, शंख, अनिक प्रादि उत्तम वाद्यों की ध्वनि की फुहारे के जल की तरह आकाश में व्याप्त कर, मेघ की तरह हस्तियों के मदजल से दिकसमूह को प्रार्द्र कर, तरंग जिस प्रकार समुद्र को प्रावृत करती है तुरग से उसी प्रकार पृथ्वी को प्रावृत कर, कल्प-वृक्ष से सम्बन्धित युगलियों-से हर्ष और शीघ्रतायुक्त महाराज स्व अन्तःपुर और परिवार सहित अल्प समय में ही अष्टापद जाकर उपस्थित हो गए।
(श्लोक १६३-१६९) संयम लेने को इच्छुक व्यक्ति जिस प्रकार गृहस्थ धर्म से अवतरण कर ऊँचे चारित्र धर्म पर आरूढ़ होता है उसी प्रकार महाराज भरत महागज से अवतरण कर महागिरि पर चढ़े । उत्तर दिशा के द्वार से वे समवसरण में प्रविष्ट हुए। वहाँ आनन्दरूप अंकुर उत्पन्नकारी मेघ की तरह प्रभु को उन्होंने देखा । भरत प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में नमस्कार कर मस्तक पर अंजलि रख इस प्रकार स्तुति करने लगे : (श्लोक १७०-१७२)
हे प्रभु, मेरे जैसे व्यक्ति द्वारा आपकी स्तुति करना मानो कलश स समुद्र को पान कराने की प्रचेष्टा है। फिर भी मैं स्तुति करूंगा । कारण, आपकी भक्ति के कारण मैं निरंकुश हो गया हूँ । हे प्रभु, दीपक के सम्पर्क से जैसे बाती भी दीपकत्व को प्राप्त होती