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रूपी ग्रीष्म में तापित प्राणियों के लिए आपकी चरण छाया जैसे छत्रछाया का काम करती है उसी प्रकार आप ही मेरी रक्षा करिए । हे नाथ, सूर्य जैसे परोपकार के लिए ही उदित है आप भी लोक-कल्याण के लिए उसी प्रकार विहार करते हैं । प्राप धन्य हैं । आप कृतार्थ हैं। मध्याह्न के सूर्य से जिस प्रकार देह की छाया संकुचित होती है उसी प्रकार आपके उदय से प्राणियों के कर्म चारों प्रोर से संकुचित हो जाते हैं । वे पशु भी धन्य हैं जो सर्वदा आपके दर्शन करते हैं और वे स्वर्ग के देव भी प्रधन्य हैं जो आपके दर्शन नहीं पाते । हे त्रिलोकनाथ, जिसके हृदय रूपी चैत्य में आप से अधिदेव विराजमान हैं वे भव्य जीव उत्कृष्टों के मध्य भी उत्कृष्ट हैं । आपसे मेरी एक ही प्रार्थना है कि ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए भी प्राप मेरे हृदय रूपी सिंहासन का कभी परित्याग न करें ।' ( श्लोक १४१ - १४८ )
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इस प्रकार स्वर्गपति इन्द्र प्रभु की स्तुति कर पंचांगों से भूमि स्पर्शपूर्वक प्रभु को प्रणाम कर पूर्व और उत्तर दिशा के मध्य जाकर वैठ गए । प्रभु अष्टापद पर आए हैं - यह समाचार शैलरक्षक ने उसी समय जाकर चक्री को बता दिया । कारण, वह इस कार्य के लिए ही वहां नियुक्त था । भगवान् के आगमन का शुभ समाचार लाने वाले पुरुष को दाता चक्री ने साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दीं । इस प्रसंग पर कुछ भी दिया जाए वह कम ही होता है । तब महाराज सिंहासन से उठे और सात - आठ कदम अष्टापद की ओर अग्रसर होकर प्रभु को प्रणाम किया । पुनः सिंहासन पर बैठे । प्रभु को वन्दना करने जाने के लिए अपने सैनिकों को बुलवाया। भरत की आज्ञा से चारों ओर के राजा इस प्रकार अयोध्या में एकत्र होने लगे जैसे समुद्र तट पर तरंगें प्रा टूटती हैं । उच्च स्वर से हाथी वृंहतिनाद करने लगे और घोड़े हो षारव । ऐसा लगा मानो वे अपने प्रारोहियों को शीघ्र चलने के लिए प्रेरित कर रहे हों । पुलकित देही रथी और पदातिक सानन्द यात्रा के लिए प्रवृत्त हुए । कारण, भगवान् के पास जाने की राजाज्ञा सोने में सुहागे - सी हो रही थी । जिस प्रकार बाढ़ का जल बड़ी नदी में भी नहीं समाता उसी भाँति प्रयोध्या और भ्रष्टापद के मध्य वह सेना समा नहीं रही थी । श्राकाश में श्वेत छत्र और मयूर छत्र एक साथ दृष्टिगत होने से गंगा-यमुना के संगम दृश्य को धारण कर रहा