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________________ [२८५ तुल्य समतल कर दिया । व्यन्तर देवताओं ने उस भूमि को इन्द्रधनुष के खण्ड-से पाँच वर्गों के पुष्पों की इतनी वृष्टि को जिससे घटनों तक उनके पांव उनमें डूब गए । यमुना नदी को तरंग-शोभा धारण करने वाले वृक्षों के प्रार्द्र पत्रों से चारों ओर तोरण बांधे। चारों ओर के स्तम्भों पर बँधे मकराकृति तोरणों ने सिन्धु के उभय तट पर स्थित मकर की शोभा धारण कर ली थी। उनमें चारों दिशाओं की देवियों के चाँदी के दर्पण हों ऐसे चार छत्र थे और आकाश-गंगा की चपल तरंगों की भ्रान्ति उत्पन्न करने वाले पवन द्वारा आन्दोलित पताकाएँ सुशोभित हो रही थीं। उस तोरण के नीचे रचे मुक्ता के स्वस्तिक जैसे समस्त जगत् का कल्याण यहीं है ऐसी चित्रलिपि का का भ्रम पैदा कर रहे थे। वैमानिक देवताओं ने उस भूमितल में रत्नाकर की शोभा के सर्वस्व रूप रत्नमय गढ़ निर्मित किए और उसी गढ़ पर मानुषोत्तर पर्वत की सीमा में स्थित चन्द्रसूर्य की किरणमाला-सी माणिक्य के जिसमें गोलक लटक रहे हैं ऐसी माला तैयार की फिर ज्योतिष्क देवगणों ने वलयाकार किया। हेमाद्रि पर्वत के शिखर हों ऐसे निर्मल स्वर्ण से मध्यम गढ़ निर्मित किया और उस पर रत्नमय गोलक लटकाए । प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण वे गोलक चित्रमय से लगते थे । भुवनपति देवताओं ने कुण्डलाकार बने शेष नाग का भ्रम उत्पन्न करने वाले चाँदी के अन्तिम गढ़ का निर्माण किया और उस पर क्षीर समुद्र के जल-तट पर बैठे हुए मानो गरुड़ों की श्रेणी हो ऐसे सुवर्णगोलकों की श्रेणियाँ बनायीं। फिर अयोध्या नगरी के गढ़ में जिस प्रकार चारों दिशाओं में चार दरवाजे थे वैसे ही प्रत्येक गढ़ में चार दरवाजे बनाए । उन दरवाजों पर मारिणक्य के तोरण बाँधे । स्व-प्रसारित किरणों से वे तोरण शतगुण हो गए हों ऐसे प्रतिभासित हो रहे थे। व्यंतर देवों ने प्रत्येक दरवाजे पर आँखों की काजल-रेखा-सी धुएँ रूपी उमि को धारण करने वाली धूपदानियाँ रखीं। मध्य गढ़ के ईशान कोण में गह-दीवालों-सी प्रभु के विश्राम के लिए एक देव छन्द निर्मित किया । व्यन्तरों ने जहाज के मध्य जैसे कूपक (मस्तूल) हों ऐसे समवसरण के मध्य में तीन कोश ऊँचा चैत्य वृक्ष लगाया। उस चैत्यवृक्ष के नीचे स्व किरणों से मानो वृक्ष को मूल से पल्लवित कर रहे हों ऐसी एक रत्नपीठिका निर्मित की। उस पीठिका पर चैत्य वृक्ष की शाखा के अन्त में स्थित पत्रों से बार-बार परिष्कृत
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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