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से नत्य कराता। किन्नर स्त्रियाँ रति प्रारम्भ होने पर उसकी गुफाओं को महल का रूप प्रदान करतीं। अप्सरानों के स्नान करने के समय उनकी कल्लोलों से सरोवर के जल तरंगित हो जाते । यक्ष. गण कहीं घूत-क्रीड़ा करते तो कहीं मदिरा-पान करते । कहीं बाजी लगाकर खेल होता। इससे उसका मध्य भाग कोलाहल से पूर्ण रहता। उस पर्वत पर किसी जगह किन्नर स्त्रियाँ, कहीं भील पत्नियाँ, कहीं विद्याधर रमरिणयाँ क्रीड़ा करती हुई गीत गातीं। कहीं पके हुए द्राक्षाफल खाकर उन्मत्त बने शुक पक्षी कलरव करते । कहीं आम्र मकरन्द पान कर उन्मत्त बनी कोकिलाएं पंचम स्वर मैं आलाप करतीं। कहीं कमल नाल के स्वाद से उन्मत्त बने क्रोंच पक्षी केंकार ध्वनि करते । किसो स्थान पर निकट स्थित मेघदर्शन से उन्मत्त बने मयूर केकारव करते । कहीं सरोवर में विचरण करने वाले सारस पक्षियों का स्वर सुनायी पड़ता। इन सबसे वह पर्वत बहुत मनोरम लगता।
(श्लोक ९१-९८) यह पर्वत कहीं रक्तवर्ण अशोक वृक्ष के पत्रों से कुसुम्भी वस्त्र वाला हो ऐसा लगता, कहीं तमाल ताल और हिन्ताल वृक्षों से श्याम वस्त्र वाला, कहीं सुन्दर पुष्प युक्त ढाक वृक्षों से पीत वस्त्र वाला, कहीं मालती-मल्लिकाओं के समूह से श्वेत वस्त्र वाला। उसकी उच्चता पाठ योजन होने से वह आकाश पर्यन्त ऊँचा है ऐसा लगता। इस प्रकार उस अष्टापद पर्वत पर गिरि के समान गरिष्ठ अर्थात् सबके सम्मानित जगद्गुरु ने प्रारोहण किया । पवन से स्खलित पुष्पों से और निर्भर के जल से उस पर्वत ने प्रभु के चरणों में अर्घ दिया।
(श्लोक ९९-१०२) प्रभु के चरण पड़ने से पवित्र बना वह पर्वत प्रभु के जन्म स्नात्र से पवित्र मेरु से स्वयं को न्यून नहीं समझता था। हर्षित कोकिलानों के शब्द से मानो वह जगत्पति का गुणगान कर रहा हो ऐसा लगता था।
(श्लोक १०३-१०४) ___ झाड़ से परिष्कृत करने वाले सेवक की तरह देवताओं ने उस पर्वत की एक योजन भूमि को तण कण्टकादि से विमुक्त किया। देवताओं ने जलवहनकारी भैंस की तरह मेघ सृष्टि कर सुगन्धित जल से उस भूमि को सिंचित किया। फिर देवताओं ने बड़ी-बड़ी स्वर्णरत्न की शिलाओं से उस भूमि को आच्छादित कर दर्पणतल