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महाप्रभु ऋषभ पहले से ही बाहुबली के मान की बात जानते थे फिर भी एक वर्ष पर्यन्त उनकी उपेक्षा की। अर्हत् स्थिर लक्ष्य सम्पन्न होते हैं। एतदर्थ समय उपस्थित होने पर ही वे उपदेश देते
(श्लोक ७८३-७८४) आर्या ब्राह्मी व सुन्दरी उस देश में गई किन्तु धूल से आवृत रत्न की तरह अनेक लताओं द्वारा वेष्टित वे महामुनि उन्हें दृष्टिगोचर नहीं हुए। बहुत खोज तलाश के पश्चात् वे प्रायिकाएं वृक्ष के समान बने उस महात्मा को पहचान सकी । बड़ी चतुरता से उन्हें भली भाँति पहचान कर दोनों प्रायिकाओं ने महामुनि बाहुबली को तीन प्रदक्षिणा देकर वन्दन किया और इस प्रकार बोलीं-हे ज्येष्ठ आर्य, हमारे पिता भगवान ऋषभ ने हम लोगों के द्वारा आपको कहलवाया है-'हस्ती पर प्रारूढ़ व्यक्ति को केवल ज्ञान कभी नहीं होता।'
(श्लोक ७८५-७८८) ऐसा कहकर दोनों पार्थिकाएँ जिस प्रकार पायी थीं उसी प्रकार चली गयीं। यह सुनकर महात्मा बाहुबली के मन में आश्चर्य हुया । वे सोचने लगे-'मैंने समस्त सावध योग का त्याग किया है। मैं वक्ष की तरह कायोत्सर्ग कर वन के मध्य खड़ा है। फिर भी हस्ती पर आरूढ़ हूं ? कैसे ? ये दोनों आयिकाएं भगवान की शिष्याएं हैं। ये कभी झूठ नहीं बोल सकतीं। तो फिर इसका क्या अर्थ है ? हाँ-ऐसा होता है। अब मैं समझ गया ! इतने दिनों मैं जो सोचता रहा कि व्रत में बड़े होने पर भी उम्र में छोटे मेरे भाइयों को मैं कैसे नमस्कार करूंगा-यही मेरा अभिमान है। यही वह हाथी है। उसी पर मैं निर्भय होकर बैठा हूँ। मैंने त्रिलोक के स्वामी की चिरकाल सेवा की है तब भी मुझे उसी प्रकार ज्ञान नहीं हुया जिस प्रकार जल निवासी कर्कट को तैरना नहीं पाता। इसी लिए मुझसे पूर्व व्रत ग्रहण करने वाले महामना भाइयों को ये छोटे हैं ऐसा समझकर बन्दना करने की इच्छा नहीं हुई। अब मैं अभी जाकर उन महामुनियों की वन्दना करूंगा। (श्लोक ७८९-७९५)
ऐसा विचार कर महासत्त्व बाहुबली ने जाने के लिए जैसे ही पाँव उठाए उसी क्षण जिस प्रकार उनके शरीर से लताएँ छिन्न होने लगीं उसी प्रकार उनके घाती कर्म भी क्षय होने लगे और तत्क्षण उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। जिन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुया है