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देता है उसी प्रकार चक्र ने बाहुबली को प्रदक्षिणा दी। कारण, चक्री का चक्र जब सामान्य स्व- गोत्रीय पर प्रहार नहीं कर सकता तो चरम शरीरी स्व- गोत्रीय पर तो प्रहार करता ही कैसे ? इसलिए पक्षी जैसे नीड़ में लौट जाता है, अश्व जैसे अश्वशाला में चला जाता है वैसे ही चक्र राजा भरत के हाथों में लौट आया ।
( श्लोक ७०७-७२४) मारने के विषधारी सर्प-सा अमोघ अस्त्र एक चक्र ही भरत के पास था । अब ऐसा दूसरा ग्रस्त्र भरत के पास नहीं था । अतः चक्र निक्षेप कर अन्याय करने वाले भरत को और उसके चक्र को मुष्ठि प्रहार से चूर-चूर कर दूँ, क्रोधावेग में ऐसा सोचते-सोचते सुनन्दा पुत्र बाहुबली यमराज की तरह भयंकर मुष्ठि उत्तोलित कर चक्री की ओर दौड़े। सूड में मुद्गर लिए हाथी की तरह मुष्ठि बद्ध दौड़ते हुए बाहुबली भरत के निकट जा खड़े हुए; किन्तु समुद्र जैसे मर्यादित भूमि में ही अवस्थित रहता है उसी प्रकार वे महासत्त्व कुछ कदम पीछे ही खड़े रहे और सोचने लगे - हाय ! इस चक्रवर्ती की तरह राज्य- लोभ से बड़े भाई का वध करने को मैं प्रस्तुत हुप्रा एतदर्थ मैं शिकारी से भी अधिक पापी हूं । जिसमें पहले ही भ्राता और भ्रातृपुत्र को मार डालना होता है इस प्रकार के शाकिनी मन्त्र से राज्य के लिए कौन प्रयास करता है ? राजा राज्यश्री प्राप्त करते हैं, इच्छानुरूप उसका उपभोग भी करते हैं; किन्तु मदिरा से जैसे कभी सन्तोष नहीं मिलता उसी प्रकार राजाओं को भी प्राप्त राज्यलक्ष्मी से सन्तोष नहीं होता । पूजा आराधना करने पर भी क्षुद्र छिद्र देखकर दुष्ट देवताओं की तरह राज्यलक्ष्मी भी मुहूर्तमात्र में विपरीतगामिनी हो जाती है । अमावस्या की रात्रि की तरह वह प्रगाढ़ अन्धकारमयी होती है । यदि ऐसा नहीं हुआ होता तो पिता क्यों उसका परित्याग करते ? मैं उस पिता का पुत्र होकर भी जब यह इतने दिनों बाद जान पाया हूँ तब अन्य उसे इस प्रकार कैसे जान सकते हैं ? अतः यह राज्यलक्ष्मी सर्वदा त्याग करने योग्य है । ऐसा सोचते हुए उदार हृदय बाहुबली ने चक्रवर्ती से कहा - हें क्षमानाथ, हे भाई, केवल राज्य के लिए मैं शत्रु की तरह आपको व्यथित कर रहा हूँ, मुझे क्षमा करिए। इस संसार रूपी वृहत् सरोवर में सैवाल - जाल की तरह भाई-बन्धु और पुत्र कलत्र हैं । अब इस राज्य से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । मैं तीन लोक के स्वामी