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विराट् महीरुह हों । दुर्दिन में उन्मत्त समुद्र जल की तरह वे क्षरण मात्र में उत्पतित और क्षण मात्र में निपतित होते थे । मानो स्नेह से मिल रहे हों इस प्रकार क्रोधावेश से दौड़कर दोनों महाबाहु एकएक अंग से एक दूसरे को पीस रहे थे और कर्म परवश जीव की तरह युद्ध विज्ञान के वशवर्त्ती होकर कभी नीचे कभी ऊपर ग्रा जा रहे थे । जल में मत्स्य की भाँति इतने वेग से बार-बार ऊपर-नीचे हो रहे थे कि जो उन्हें देख रहे थे वे जान ही नहीं पाते कि कौन नीचे है कौन ऊपर है ? वृहद् सर्प की तरह वे एक दूसरे के लिए बन्धन रूप हो रहे थे और चपल बन्दर की तरह उसी क्षरण पृथक भी हो जाते थे । बार-बार पृथ्वी पर लोटने के कारण दोनों ही धूलि - धूसर हो गए थे । देखकर लगता जैसे वे धूलिमद वाले हस्ती हों । संचरमान पर्वत की तरह उनका भार वहन करने में असमर्थ होकर पृथ्वी उनके पदाघात के बहाने मानो आर्तनाद कर रही हों । अन्ततः क्रोधाविष्ट महापराक्रमी बाहुबली ने भरत को उसी प्रकार अपने हाथों में उठा लिया जिस प्रकार शरभ हस्ती को उठा लेता है एवं हाथी जिस प्रकार क्षुद्र जानवर को उठाकर आकाश में उछाल देता है उसी प्रकार भरत को उछाल दिया । कारण बलवानों में भी अधिक बलवानों की उत्पत्ति निरवधिकाल से होती आ रही है । प्रत्यंचा से छूटे तीर की तरह या यन्त्र द्वारा उत्क्षिप्त प्रस्तर की तरह राजा भरत आकाश में बहुत ऊपर चले गए । इन्द्र द्वारा निक्षिप्त वज्र की तरह नीचे की ओर गिरते हुए चक्री को देखकर युद्ध देखने वाले समस्त खेचर भाग गए एवं दोनों सेनाओं के मध्य हाहाकार मच गया । क्योंकि महापुरुषों के आपद् काल में किसे दुःख नहीं होता ? ( श्लोक ६१६-६३१ ) बाहुबली सोचने लगेमुझ जैसे सहसा कार्य की उपेक्षा करने वाले अथवा इस समय ऐसी निन्दा करने इससे तो अच्छा यह है कि मैं बड़े गिरकर चूर-चूर होने के पहले ही सोचकर बाहुबली ने अपने दोनों कर दिया । ऊँचा हाथ कर खड़े देखते हुए तपस्वी की तरह भरत
उत्क्षिप्त भरत को आकाश में देखकर अरे धिक्कार है मेरे बल को, मेरे बाहु को । करने वाले को धिक्कार है । और ऐसे कार्यों मन्त्रियों को भी धिक्कार है ? की ही क्या आवश्यकता है ? भाई को आकाश से पृथ्वी पर अपने हाथों पर झेल लूँ । ऐसा हाथों को शय्या की तरह विस्तृत बाहुबली क्षणमात्र सूर्य की ओर