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की ओर देखते रहे। मानो वे उड़ना चाह रहे हों। इस प्रकार पगतलियों पर भार दिए खड़े होकर उन्होंने ग्रापतित भरत को कन्दुक की तरह पकड़ लिया। उस समय दोनों ओर की सेना में उत्सर्ग और अपवाद की तरह चक्री उत्क्षिप्त करने का खेद और उनकी रक्षा का हर्ष संचारित हो गया। ऋषभदेव के पुत्र ने भाई की रक्षा का जो विवेक दिखाया उससे लोग उनकी प्रशंसा करने लगे। देवताओं ने ऊपर से पुष्प-वृष्टि की। किन्तु वीरव्रत धारी पुरुष को उससे क्या ? तत्काल धुआँ और ज्वाला से जैसे अग्नि युक्त होती है उसी प्रकार भरत राजा भी इस घटना से खेद और क्रोध युक्त हो गए।
(श्लोक ६३२-६४०) उस समय लज्जा से अपने मुख कमल को पानत कर भाई का खेद दूर करने के लिए बाहबली गदगद स्वर में बोले-'हे जगत्पति, हे महावीर्य, हे महाभुज, आप खेद मत करिए। विजयी को भी कभी दूसरा पराजित कर देता है; किन्तु इस कार्य से न मैंने आपको जोता, न मैं विजयी बना हूँ। मैं तो इस घटना को घुरणाक्षर न्याय की तरह समझता हूं। हे भुवनेश्वर, अभी आप एकमात्र वीर है, कारण देवतानों द्वारा मथा जाने पर भी समुद्र समुद्र ही रहा, वाष्प नहीं बना। कूद कर गिरे बाघ की तरह आप खड़ क्यों रह गए ? युद्ध के लिए प्रस्तुत होइए । मेरा यह भुजदण्ड मुष्ठि प्रस्तुत कर अपने अपवाद को दूर करेगा-ऐसा कहते हुए फणीश्वर सर्प जिस प्रकार फण विस्तारित करता है उसी प्रकार मुष्टि बन्द कर क्रोध से रक्त वर्ण नेत्र किए चक्रवर्ती बाहुबली की ओर दौड़ और हस्ती जैसे स्वदन्त से दरवाजे पर आघात करता है उसी प्रकार उन्होंने बाहुबली की छाती में मुष्ठि प्रहार किया। जिस प्रकार ऊषर भूमि में वर्षा, बधिर व्यक्ति के कान में निन्दा, हिम खंड में अग्नि व्यर्थ हो जाती है उसी प्रकार बाहुबली की छाती पर वह मुष्ठि प्रहार भो व्यर्थ हो गया। फिर क्या वे मुझसे असन्तुष्ट हो गए हैं ऐसी आशंका से देवताओं द्वारा परिदृष्ट सुनन्दा पुत्र मुष्ठि बन्दकर भरत की ओर गए और चक्री की छाती पर इस प्रकार मुष्ठि प्रहार किया जिस प्रकार महावत अंकुश से हस्ती के कुम्भस्थल पर करता है । पर्वत पर वज्र प्रहार की तरह उस प्रहार से घबड़ा कर भरतपति मूच्छित होकर धरती पर गिर पड़े। पति के पतन पर कुलांगना की तरह भरत के पतन पर पृथ्वी कम्पित होने