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है । वे भी द्वन्द्व युद्ध ही चाहते थे फिर देवतानों ने भी जब प्रार्थना की है तब तो फिर बोलना ही क्या है ? अतः इन्द्र के समान पराकमी महाराज बाहुबली तुम लोगों को युद्ध न करने की प्राज्ञा दे रहे हैं । देवताओं की तरह तुम लोग भी तटस्थ होकर हस्ती-मल्ल ( ऐरावत) की तरह महापराक्रमी अपने स्वामी को युद्ध करते देखो और वक्र ग्रह की तरह अपने-अपने रथ अश्व और पराक्रमी हस्तियों को लौटा लो । सर्प को जिस प्रकार टोकरियों में रखा जाता है उसी प्रकार तुम लोग भी तलवारों को म्यान में रखो और केतु की तरह तुम्हारे भालों को कोष में भर दो । हाथी की सूंड से मुद्गर अब अपने हाथों में मत रखो । ललाट से जिस प्रकार भृकुटि उतारी जाती है उसी प्रकार अपने धनुषों की प्रत्यंचा को उतार दो । भंडार में जिस प्रकार धन रखा जाता है उसी प्रकार तुम्हारे तीर तूणीर में रखो एवं विद्युत जैसे मेघ में विलुप्त हो जाती है उसी प्रकार अपने क्रोध को शान्त करो ।' (श्लोक ५१९-५२७)
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छड़ीदार की घोषणा वज्रघोष की तरह बाहुबली के सैनिकों सुनी । उनका चित्त विभ्रान्त हो गया । वे परस्पर इस प्रकार कहने लगे – 'ये देवगण युद्ध देखकर वरिणकों की तरह भयभीत हो गए हैं । ऐसा लगता है इन्होंने भरत की सैन्य से उत्कोच लिया है । ये हमारे पूर्व जन्म के बैरी-से हैं तभी तो स्वामी से कहकर हमारा युद्धोत्सव बन्द करा दिया है । खाने के लिए बैठे आदमी के सम्मुख से जैसे कोई खाद्य भरा थाल उठा ले, स्नेह करते हुए मनुष्य की गोद से जैसे कोई शिशु हटा ले, कुएँ से बाहर निकलते समय सहायक पुरुष के हाथ से कुएँ में डाली रस्सी जैसे कोई खींच ले उसी प्रकार देवतायों ने हमारा रणोत्सव ही बन्द कर दिया । भरत राजा-सा ऐसा कौन दूसरा शत्रु मिलेगा जिसके साथ युद्ध कर हम महाराज बाहुबली का ऋण चुका सकेंगे । सगोत्र भाई बन्धु, चौर और पितृगृह में रहने वाली रमणी की तरह हमने व्यर्थ ही बाहुबली महाराज से धन ग्रहण किया । हमारी बाहुशक्ति भी उसी प्रकार व्यर्थ हो गयी जिस प्रकार वनवृक्षों की पुष्प- गन्ध व्यर्थ हो जाती है । नपुंसक व्यक्ति द्वारा एकत्र युवतियों के यौवन की तरह हमारा शस्त्र-संग्रह व्यर्थ हो गया । शुकपक्षी द्वारा किए गए शास्त्राभ्यास की तरह हमारी शस्त्र-शिक्षा व्यर्थ हो गयी । तपस्वियों के अधिगत कामशास्त्र का ज्ञान जैसे निष्फल होता है उसी प्रकार हमारा सैनिक होना भी