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व्यर्थ हो गया। हम अबोध थे जो हस्तियों को युद्ध में स्थिर रखने का और अश्वों को श्रमविजयी बनाने का अभ्यास कराया, कारण, वह कोई काम नहीं पाया। शरदकालीन मेघ की तरह हमने व्यर्थ ही गर्जना की। महिषियों की तरह हमने व्यर्थ ही कटाक्ष किया। द्रव्य वहनकारी की भाँति हमारी समस्त प्रस्तुति वृथा हो गयी। फिर युद्ध का दोहद पूर्ण न होने से हमारा अहंकार धूल में मिल गया।
(श्लोक ५२८-५४०) इस प्रकार बोलते सुनते दुःख रूपी विष में दग्ध होते हुए सर्प फुत्कार की तरह निश्वास छोड़ते हुए सैनिक लौट गए। क्षात्रव्रत रूपी धन से धनी राजा भरत ने भी अपनी सेना को उसी तरह लौटा लिया जैसे भाटे के समय समुद्र का जल लौट जाता है । पराक्रमी चक्रवर्ती द्वारा प्रत्याहृत सैनिक स्थान-स्थान पर एकत्र होकर विचार करने लगे- 'हमारे स्वामी भरत ने किस वैरी-से मन्त्री के कहने से द्वन्द्व-युद्ध स्वीकार कर लिया ? तक्र ाहार की तरह प्रभु ने यदि इस भांति का युद्ध स्वीकार कर लिया तब तो फिर अब हमारी आवश्यकता ही क्या रहेगी। छह खण्ड पृथ्वी के किस राज्य को हमने परास्त नहीं किया कि उन्होंने हमें युद्ध के लिए रोक दिया ? जब निज सैनिक भाग जाते हैं, हार जाते हैं या मर जाते हैं तब स्वामी को युद्ध करना उचित होता है । कारण, युद्ध की गति विचित्र है। बाहबली के अतिरिक्त यदि और कोई शत्र होता तब तो स्वामी के बुन्द्व-युद्ध में जय लाभ के विषय में हमें कोई - शंका ही नहीं रहती। किन्तु बलवान बाह सम्पन्न बाहबली के साथ प्रथम तो युद्ध करना ही उचित नहीं है। पहले हम युद्ध करते बाद में स्वामी को युद्ध में जाना चाहिए था । कारण, पहले चाबुक से घोड़े को वश में किया जाता है बाद में उस पर सवार हुअा जाता है।' चक्रवर्ती इस प्रकार सैनिकों को बोलते विचारते देखकर उनका मनोभाव जान गए । अत: उन्हें बुलवाया और समझा कर कहने लगे -'हे वीर सैनिको, जिस प्रकार अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणे अग्रवर्ती होती हैं उसी प्रकार शत्रु-विनाश के लिए तुम लोग भी अग्रवर्ती रहते हो । गहन खन्द में गिरा हस्ती जिस भाँति दुर्ग के निकट नहीं जा सकता उसी प्रकार तुम लोगों के रहते कोई भी शत्र मेरे पास नहीं पा सकता। इसके पूर्व तुम लोगों ने कभी मेरा युद्ध नहीं देखा इसलिए तुम्हारे मन में कुछ अन्यथा शंकाएं