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महाराज भरत मेघ गम्भीर स्वर में बोले –'हे देवगण आपके सिवाय जग-कल्याण की बात और कौन कहेगा ? प्रायः लोग तमाशा देखने की इच्छा से ऐसे कार्य से उदास रहते हैं। आपने कल्याण-कामना से युद्ध के जिन कारणों की कल्पना की वह वैसी नहीं है, कारण दूसरा है। किसी कार्य का मूल जाने बिना यदि कुछ कहा जाता है तो वह निष्फल ही है चाहे वह बृहस्पति द्वारा ही क्यों न कहा गया हो ? मैं बलवान् हूँ यह सोचकर मैं युद्ध करना स्थिर नहीं करता। कारण, तेल अधिक हो जाने पर भी उसे कोई भी पर्वत पर लेपन नहीं करता। भरत क्षेत्र के छह खण्डों को जीत लेने पर मेरा कोई प्रतिस्पर्धी नहीं रहा यह मैं नहीं मानता। कारण, शत्रु के समान प्रतिस्पर्धी और हार-जीत के कारणभूत बाहुबली और मेरे बीच में भाग्यवश ही विरोध हुआ है। पहले निन्दाभीरु, लजाल, विवेकी, विनयी एवं विद्वान् बाहुबली मुझे पिता तुल्य मानता था; किन्तु साठ हजार वर्ष पश्चात् जब मैं दिग्विजय कर लौटा तो देखा बाहुबली बहुत बदल गया है । अब वह अन्य-सा हो गया है । इस प्रकार होने का कारण इतने दिनों तक न मिलना ही लगता है। बारह वर्षों तक राज्याभिषेक का उत्सव चला; किन्तु वह नहीं पाया । मैंने सोचा-पालस्यवश ही वह नहीं पाया होगा। तब उसे बुलाने को दूत भेजा। तब भी वह नहीं पाया। मैंने उसे क्रोध या लोभ के वशीभूत होकर नहीं बुलाया था; किन्तु चक्र तब तक नगर में प्रवेश नहीं करता जब तक एक भी राजा चक्रवर्ती के अधीन न होकर स्वतन्त्र रहेगा। अतः मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। इधर चक्र नगर में प्रवेश नहीं करता है उधर बाहुबली झुकता नहीं है । लगता है जैसे दोनों स्पर्धा कर रहे हैं। एक विकट संकट में पड़ गया हूं मैं । मेरा मनस्वी भाई यदि एक बार भी मेरे पास आए और अतिथि की तरह पूजा ग्रहण करे तो इच्छानुसार भूमि भी वह मुझसे ले सकता है। चक्र के नगर-प्रवेश न करने के कारण ही तो मुझे युद्ध करना पड़ रहा है। युद्ध का कोई दूसरा कारण नहीं है । नत नहीं होने वाले भाई से मुझे किसी प्रकार का मान पाने की इच्छा नहीं है।
(श्लोक ४५६-४७०) देवता बोले-'राजन् ! युद्ध का अवश्य ही कोई बड़ा कारण है। आप जैसे पुरुष किसी छोटे कारण से ऐसी प्रवृत्ति कभी नहीं करते । अब हम बाहुबली के पास जाकर उनको उपदेश देंगे और