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उन्हें 'जय हो, जय हो' शब्द से श्राशीर्वाद देकर प्रियभाषी देव मन्त्रियों की तरह युक्ति-युक्त से वाक्य बोले : ( श्लोक ४४० - ४४१ ) 'हे नरदेव, इन्द्र जैसे दैत्यों पर जय प्राप्त करता है उसी प्रकार आपने छह खण्ड भरत क्षेत्र के समस्त राजाओं पर विजय प्राप्त की है । यह आपके लिए उचित ही है । हे राजेन्द्र, पराक्रम श्रौर तेज से समस्त राजाओंों रूपी मृगों के मध्य आप शरभ ( ग्रष्टापद ) तुल्य हैं । प्रापका प्रतिस्पर्धी कोई नहीं है । कलश के जल में मन्थन करने से जैसे मक्खन पाने की इच्छा पूर्ण नहीं होती उसी प्रकार आपकी ररण- स्पृहा पूर्ण नहीं हो सकी । इसीलिए प्रापने स्वभ्राता के साथ युद्ध आरम्भ किया है; किन्तु यह युद्ध तो एक हाथ का दूसरे हाथ पर आघात करना है । वृहद् हस्ती जिस प्रकार अपने गण्डस्थल को वृहद् वृक्ष से रगड़ता है गण्डस्थल में उत्पन्न खुजलाहट के कारण, उसी प्रकार आप भी जो भाई के साथ युद्ध कर रहे हैं उसका कारण आपके हाथों की खुजलाहट है । वन के उन्मत्त हस्तियों की उन्मत्तता से वन जैसे विनष्ट हो जाता है उसी प्रकार आपके बाहुनों की खुजलाहट से जगत् विनष्ट हो जाएगा। मांसभोजी मनुष्य जैसे जिल्ह्वा स्वाद की तृप्ति के लिए पशु-पक्षियों को विनष्ट करता है उसी प्रकार आप भी कोड़ावश जगत् के संहार के लिए उद्योगी हुए हैं । चन्द्रमा से अग्निवर्षण जैसे उचित नहीं होता उसी प्रकार जगत्त्राता दयालु ऋषभदेव के पुत्र का निज भ्राता के साथ युद्ध करना उचित नहीं है । हे पृथ्वीरमण ! संयमी जैसे भोग से मुँह फेर लेते हैं उसी प्रकार आप युद्ध से निवृत्त होकर स्व-स्थान को प्रत्यावर्तन कीजिए। आप यहां आए इसलिए आपका छोटा भाई बाहुबली भी आपके सम्मुखीन होने प्राया है। कारण से ही कार्य होता है । संसार नाश रूपी पाप से निवृत्त होने पर आपका कल्याण होगा | युद्ध बन्द होने पर दोनों पक्षों की सेना का कुशल होगा । आपके सैन्य भार से पृथ्वी जो कम्पित हो रही है वह स्थिर हो जाएगी इससे पृथ्वी के गर्भ में निवास करने वाले भवनपति आदि ( व्यंतर देव ) सुखी होंगे, आपकी सैन्य द्वारा मर्दन के प्रभाव में पृथ्वी, पर्वत, समुद्र, प्रजागरण और समस्त प्राणियों के भय दूर होंगे और आपके युद्ध के कारण पृथ्वी विनष्ट होने का भय दूर हो जाने से समस्त देवगरण सुख से रहेंगे ।' ( श्लोक ४४२-४५५ )
इस प्रकार जब देवताग्रों ने काम की बात समाप्त की तब