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युग क्षय रूप भावी प्रजानाश का निवारण करेंगे । लगता है वे भी आपकी तरह युद्ध का अन्य कोई कारण बताएँगे । फिर भी प्राप लोगों का ऐसा अधम युद्ध करना उचित नहीं है । महान् पुरुष तो दृष्टि, वाणी, बाहु और दण्डादि से परस्पर युद्ध करते हैं ताकि निरपराध हस्ती आदि प्राणियों का विनाश न हो ।'
(श्लोक ४७१-४७४) भरत चक्रवर्ती ने देवताओं का यह कथन स्वीकार किया । तब वे दूसरी ओर की सेना के मध्यवर्ती बाहुबली के निकट गए । उन्हें देखकर वे आश्चर्यचकित होकर सोचने लगे - अहो, बाहुबली की देह तो गूढ़ गुण सम्पन्न मूर्ति से ही मानो बनी है । फिर वे बोले - ' हे ऋषभनन्दन ! हे जगत् नेत्र रूपी चकोर को ग्रानन्द देने वाले चन्द्र ! आप चिर विजयी हों एवं आनन्द पूर्वक रहें । ग्राप समुद्र की तरह मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं करेंगे एव डरपोक जिस प्रकार युद्ध से डरता है उसी प्रकार आप निन्दा से डरते हैं । आपको सम्पत्ति का अभिमान नहीं है । दूसरे के ऐश्वर्य से श्रापको ईर्ष्या नहीं है । दुर्विनीत को दण्ड देते हैं एवं जगत् को अभय प्रदान करने वाले आप ऋषभनाथ के योग्य पुत्र हैं । आपने अपने बड़े भाई के साथ भयंकर युद्ध करना स्थिर किया है यह उचित नहीं है । जिस प्रकार अमृत से मृत्यु सम्भव नहीं है उसी प्रकार आपके द्वारा यह कार्य भी सम्भव नहीं है । अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है । अतः दुष्ट लोगों की मित्रता की भाँति इस युद्ध का परित्याग करिए । मंत्र से जिस प्रकार बड़े-बड़े साँपों को लौटाया जाता है उसी प्रकार स्व आज्ञा से वीर सैनिकों को युद्ध से निवृत्त करिए । तदुपरान्त अपने अग्रज भरत के पास जाकर उनकी अधीनता स्वीकार कीजिए। इससे आपकी प्रशंसा ही होगी कि शक्तिशाली होने पर भी आप बिनयी हैं । भरत राजा द्वारा विजय प्राप्त छह खण्ड भरत क्षेत्र का आपके स्व उपार्जित क्षेत्र की तरह उपभोग कीजिए । कारण ग्राप दोनों में कोई पार्थक्य नहीं है ।' ( श्लोक ४७५ - ४८५ )
ऐसा कहकर जब देवगरण मेघ की तरह शान्त हो गए तब स्मित हास्य के साथ बाहुबली गम्भीर स्वर में बोले - 'हे देवगण, मेरे युद्ध का यथार्थ कारण न जानने के कारण ही सरलमना प्राप लोग ऐसा कह रहे हैं । आप पिता के भक्त हैं मैं उनका पुत्र हूँ । इसी सम्बन्ध के कारण आप मुझे जो कह रहे हैं वह उचित ही
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