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उसी प्रकार देवदूष्य वस्त्र से उन्होंने उस प्रतिमा का मार्जन किया । स्व यश से निर्मल पृथ्वी की भाँति हिमाचलकुमार आदि देवताओं द्वारा दत्त गौशीर्ष चन्दन का उस प्रतिमा पर विलेपन किया । लक्ष्मी के गृह तुल्य कमल से उन्होंने पूजा में नेत्र स्तम्भन की औषधिरूप प्रांगी रचना की। धूम्रवल्ली से मानो कस्तूरी की पत्रावली चित्रित कर रहे हों इस प्रकार प्रतिमा के सम्मुख उन्होंने धूप किया । मानो समस्त कर्म रूपी समिध का वृहद् अग्निकुण्ड हो ऐसी प्रज्वलित
आरती थाल में लेकर प्रभु की आरती की। फिर करबद्ध होकर नमस्कार किया एवं ललाट पर अंजलि रखकर यह स्तुति करने लगे
(श्लोक ३८९-३९६) 'हे जगन्नाथ, मैं अज्ञानी हूं फिर भी स्वयं को योग्य समझकर स्तुति करता हूँ। कारण, बालक की अबोध चहचहाहट भी गुरुजनों को अच्छी ही लगती है। हे प्रभु, जिस प्रकार सिद्धरस के स्पर्श से लोहा सोना हो जाता है उसी प्रकार प्रापका प्राश्रयग्रहणकारी प्राणी कठिन कर्म बद्ध होने पर भी सिद्ध हो जाता है। हे स्वामी, वही प्राणी धन्य है जो अपने मन, वचन, काया का फल प्राप्त करने को आपका ध्यान करता है, आपकी स्तुति करता है, आपकी पूजा करता है। हे प्रभो, पृथ्वी पर विचरण करते समय मिट्टी पर पड़ी आपकी चरण-रज मनुष्य के पाप-रूपी वृक्ष को उखाड़ने में हाथी के समान आचरण वाली होती है। हे नाथ, स्वाभाविक मोह में जन्मान्ध सांसारिक प्राणी को विवेक रूपी दष्टि देने में एक प्राप ही समर्थ हैं। जैसे मन के लिए मेरु पर्वत दूर नहीं है उसी प्रकार आपके चरण-कमल में भ्रमर की तरह निवास करने वाले मनुष्य के लिए मोक्ष दूर नहीं है । हे देव, जिस प्रकार मेघ-वारि से जामुन वृक्ष के फल झर जाते है उसी प्रकार प्रापकी देशना रूप वाणी से प्राणी के कर्म रूपी बन्धन झर जाते हैं। हे जगन्नाथ, मैं बार-बार प्रणाम कर आपसे यही प्रार्थना करता हूं कि आपकी कृपा से समुद्र के जल की तरह आपके प्रति मेरी भक्ति सर्वदा मेरे हृदय में अवस्थान करे।'
इस प्रकार आदिनाथ की स्तुति कर और भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम कर देवालय से बाहर निकले। (श्लोक ३९७०४०५)
फिर बार-बार स्वच्छ कर उज्ज्वल किया कवच चक्री ने