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अपने उमंग भरे शरीर में धारण किया। दिव्य माणिक्यमय कवच धारण कर भरत ऐसे सुशोभित हो रहे थे जैसे माणिक्य द्वारा पूजित देव प्रतिमा शोभा पाती है। मध्य से ऊँचा और छत्र की तरह गोल स्वर्ण रत्न का शिरस्त्राण उन्होंने धारण किया । वह दूर से मुकुट की तरह लग रहा था। सर्प की भाँति अत्यन्त तेज सम्पन्न तीर भरे दो तूणीर उन्होंने पीठ पर बांधे । इन्द्र जिस प्रकार ऋजुरोहित धनुष ग्रहण करता है उसी प्रकार उन्होंने शत्रु के लिए विषम हो ऐसा कालपृष्ठ धनुष अपने बाएं हाथ में लिया। फिर सूर्य की भांति अन्य तेजस्वियों के तेज को ग्रास करने वाले भद्र गजेन्द्र की तरह क्रीड़ारत पांव फेंकते हुए विचरण करने वाला, सिंह की भाँति शत्रु को तृण तुल्य समझने वाला, सर्प को तरह दुःसह दष्टि से भयभीत करने वाला, इन्द्र की तरह चारण देवता जिसकी स्तुति कर रहे हैं ऐसे भरत राजा ने निस्तन्द्र गजेन्द्र पर आरोहण किया ।
(श्लोक ४०६-४१३) कल्पवृक्ष की तरह याचकों को दान देते-देते सहस्र चक्षु इन्द्र की तरह चारों दिशानों से आती अपनी सेना देखते-देखते राजहंस जैसे कमलनाल को ग्रहण करता है उसी भाँति एक-एक तीर ग्रहण करते-करते विलासी जिस प्रकार रतिवार्ता करते हैं उसी प्रकार रणवार्ता करते-करते आकाश में उदित सूर्य की तरह महाउत्साही और पराक्रमी दोनों ऋषभ-पुत्र अपनी-अपनी सेना के मध्य उपस्थित हए । उसी समय स्व सेना के मध्य स्थित भरत और बाहुबली जम्बूद्वीप के मध्य स्थित मेरुपर्वत को शोभा को धारण कर रहे थे । दोनों सेनाओं के मध्य स्थित भूमि निषध और नीलवन्त पर्वत के मध्य स्थित महा विदेह क्षेत्रों की भूमि जैसी लग रही थी। कल्पान्तकाल के समय पूर्व और पश्चिम समुद्र जिस प्रकार आमने-सामने वद्धित होते हैं उसी प्रकार दोनों ओर की सेनाएँ पंक्तिबद्ध होकर आमनेसामने आने लगीं। सेतुबन्ध जिस प्रकार जल-प्रवाह को इधर-उधर जाने से रोकता है उसी प्रकार द्वारपाल पंक्ति से बाहर आकर इधरउधर जाने वाले सैनिकों को रोक रहा था। ताल के द्वारा संगीत में जैसे एक ही छन्द गाया जाता है उसी प्रकार राजाज्ञा से समस्त सैनिक एक ही ताल में पांव रखकर चल रहे थे। इससे दोनों ओर की सेना ऐसी लग रही थी मानो एक शरीरी हो। वीर सैनिक पृथ्वी को लौह-चक्र से विदारित कर रहे थे, लौह-कुदाली की तरह