________________
[ १७
_'दी जानेवाली शुद्ध वस्तु भी बयालीस प्रकार की होती हैदोष रहित प्रशन (पूड़ी, मिठाई आदि) पान (जल, दूध, रस आदि) खादिम । फल, बादाम, किसमिस आदि), स्वादिम (लौंग, सुपारी, इलायची आदि), वस्त्र और संथारा ।पहनने के कपड़े तथा बिछाने के कम्बल आदि) । इन वस्तुओं के दान को शुद्ध दान बोला जाता है।
'योग्य समय पर पात्र को दान देना पात्रशुद्ध दान और कामना रहित दान देना भावशुद्ध दान कहलाता है।
(श्लोक १८३-१८४) 'शरीर के बिना धर्म की आराधना नहीं की जा सकती और अन्न के बिना देह धारण करना सम्भव नहीं है। इसीलिए धर्मोपग्रह (जिससे धर्म साधना में सहायता मिलती है। दान देना उचित है। जो व्यक्ति अशन-पानादि धर्मोपग्रह सुपात्र को दान करते हैं वे तीर्थ को स्थिर करने में सहायक बनते हैं और स्वयं भी परमपद को प्राप्त करते हैं।
(श्लोक १८५-८६) "जिस प्रवृत्ति के वश होकर प्राणी हत्या की जाती है उस प्रवृत्ति को नहीं करना शील कहलाता है। शील के भी दो भेद हैंदेश विरति और सर्व विरति ।
(श्लोक १८७) 'देश विरति बारह प्रकार की होती है। पाँच अणुव्रत, तीन गुरगवत, चार शिक्षाव्रत ।
(श्लोक १८८) __ 'स्थूल अहिंसा, स्थूल सत्य, स्थूल अस्तेय (अचौर्य), स्थूल ब्रह्मचर्य और स्थूल अपरिग्रह ये पाँच अणुव्रत हैं। दिक्विरति, भोगोपभोग विरति और अनर्थदण्ड विरति, तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, देशावकाशिक, पौषध और अतिथि-संविभाग, चार शिक्षाव्रत
(श्लोक १८९-९१) _ 'इसी प्रकार के देश विरति गुणयुक्त शुश्रषु (जिनकी धर्म सुनने की इच्छा रहती है), यति (साधु), धर्म अनुरागी, धर्मपथ्य भोजी (ऐसा भोजन करने वाला जिससे धर्माचरण करना सम्भव हो), शम (निर्विकार शांति), संवेग (वैराग्य), निर्वेद निःस्पृहता), अनुकम्पा (दया) और आस्तिक्य (श्रद्धा) बुद्धि सम्पन्न, सम्यक् दृष्टि, अज्ञान