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१८ ] और सर्वप्रकार से क्रोध रहित गृहस्थ चारित्र मोहनीय कर्म को नाश करने में सक्षम होता है।
(श्लोक १९२-१९४) 'त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से सर्वथा दूर रहने को सर्व विरति कहा जाता है। यह सर्व विरति रूप शील को प्राप्त करते हैं।
(श्लोक १९५) 'जो कर्म को तापित और विनष्ट करता है उसे तप कहते हैं। तप के दो भेद हैं: बाह्य और आभ्यंतर । अनशनादि बाह्य तप हैं एवं प्रायश्चित्तादि आभ्यंतर तप हैं।
श्लोक १९६-९७) 'बाह्य तप के छह भेद हैं: अनशन उपवास, इकाशना, प्रायंबिल आदि), वृत्ति संक्षेप (आवश्यकताएँ कम करना), रस त्याग (छह रसों में से प्रतिदिन एक रस का त्याग), कायक्लेश (केशोत्पाटन
आदि शारीरिक दुःख), संलीनता (मन और इन्द्रियों को वश में रखना)।
__(श्लोक १९८) 'आभ्यंतर तप के भी छह भेद हैं प्रायश्चित्त (कृत अतिचार एवं नियम उल्लंघन के लिए आलोचना और आवश्यक तप), वैयावृत्त (त्यागी एवं धर्मात्मानों की सेवा करना), स्वाध्याय (धर्मशास्त्रों का पठन, श्रवण, मनन), विनय (नम्रता), कायोत्सर्ग शारीरिक समस्त कर्मों का परित्याग) और शुभ ध्यान (धर्म और शुक्ल ध्यान में चित्त नियोग)।
(श्लोक १९९) 'ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप तीन रत्नों को धारण करने वाले की भक्ति करना, उनका कार्य करना, शुभ विचार और संसार के असारत्व का चिन्तन करना भावना कहलाता है। (श्लोक २००)
___ 'यह चतुर्विध (दान, शील, तप, भावना) धर्म मोक्षफल प्राप्ति का साधन है। अतः संसार भ्रमण से भयभीत व्यक्ति को सावधान होकर इसकी साधना करना उचित है।' (श्लोक २०१)
धर्मोपदेश सुनकर धन श्रेष्ठी बोले- ऐसी धर्मकथा तो मैंने कभी नहीं सुनी। इसीलिए इतने दिनों तक मैं मेरे कर्मों के द्वारा प्रवंचित हुआ हूँ।' फिर वे उठ कर प्राचार्य एवं अन्य मुनियों की वन्दना कर स्वयं को धन्य सोचते हुए अपने आवास स्थान को लौट गए। धर्म-श्रवण के प्रानन्द में श्रेष्ठी की वह रात्रि एक मुहुर्त की