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[२४५ ओर प्रताप की अभिवृद्धि के लिए आप प्रयाण करें। आप स्वयं जाकर भाई का स्नेह अवलोकन करिए एवं देखिए सुवेग का कथन सत्य है या नहीं।'
(श्लोक २५३-२६१) _ 'तब ऐसा ही हो' कहकर भरत ने मुख्यमन्त्री की मन्त्रणा स्वीकार कर ली। कारण, बुद्धिमान व्यक्ति दूसरों के युक्तिसंगत वचनों को स्वीकार कर लेते हैं। फिर शुभ दिन और मुहर्त देखकर यात्रा-मंगल कर महाराज ने प्रयाण के लिए पर्वत तुल्य उच्च हस्ती पर आरोहण किया। जैसे अन्य राजा की सेना हो इस प्रकार हजार-हजार सेवक रथ पर, घोड़े पर और हस्ती पर आरोहण कर प्रयाण-वाद्य बजाने लगे। समान ताल से बजाए हुए शब्द से सङ्गीतकार जिस प्रकार एकत्र होते हैं उसी प्रकार उस प्रयाण-वाद्य को सुनकर समस्त सैनिक एकत्र हुए। राजा, मन्त्री, सामन्त और सेनापति से परिवृत्त महाराज ने जैसे बहुरूप धारण किया है इस प्रकार नगर से निकले । एक हजार यक्षों से अधिष्ठित चक्ररत्न मानो सेनापति हो इस प्रकार आगे-आगे चला । महाराज की प्रयाण वार्ता को सूचित करने के लिए धूल उड़-उड़कर चारों ओर व्याप्त हो गई । ऐसा लगा मानो वह शत्रु का गुप्तचर है। उस समय लक्षलक्ष हस्तियों को चलता देखकर लगा जहां हस्ती जनमते हैं वहां अब और हस्ती नहीं रहे । घोड़े, रथ, खच्चर और ऊँटों को देखकर लगा-पृथ्वी पर अन्यत्र कहीं वाहन रहा ही नहीं। समुद्र देखने के समय जिस प्रकार समस्त जगत् जलमय लगता है उसी प्रकार पदातिक सेना को देखकर लगा-समस्त जगत् मनुष्यमय है । पथ अतिक्रम करते समय महाराज ने प्रत्येक नगर में, प्रत्येक ग्राम में, पथ पर यह बात सुनी-'इस राजा ने एक क्षेत्र की तरह समस्त क्षेत्र को जय कर लिया है। मुनि जिस प्रकार चौदह पूर्व को प्राप्त करते हैं इन्होंने उसी प्रकार चौदह रत्न प्राप्त किए हैं। अस्त्र-सी नवनिधि भी इनके वशीभूत हैं। इतना सब कुछ प्राप्त होने पर भी महाराज किस दिशा में और किस लिए जा रहे है ? लगता है अपना देश देखने जा रहे हैं; किन्तु शत्रुओं को जीतने वाला चक्ररत्न इनके आगे-मागे क्यों चल रहा है ? दिशा को देख कर तो लगता है ये बाहुबली को जीतने जा रहे हैं । ठीक हो कहा गया है-महान् व्यक्तियों का कषाय भी वेगवान होता है । सुनते हैं बाहुबली तो देव और असुरों के लिए भी अजेय हैं। इससे लगता है