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कारण, प्रताप ही उनका जीवन है। आपका अपना राज्य क्या कम था जो आपने छह खण्ड पृथ्वी को जय किया ? केवल अपने प्रताप के लिए ही तो? जिस प्रकार एक बार शीलभंगकारी सती को असती ही कहा जाता है उसी प्रकार एक स्थान पर विनष्ट प्रताप भी विनष्ट ही कहा जाता है। गृहस्थों में सभी भाइयों को द्रव्य समान रूप से दिया जाता है; किन्तु प्रतापशाली भाई की अन्य भाई उपेक्षा नहीं करते । समस्त भरतखण्ड को जय करने के पश्चात् इस बार आपकी पराजय समुद्र पार कर गोपद जल में डूब मरने जैसी है। कहीं सुना गया है या देखा गया है कि राज्य-चक्रवर्ती का प्रतिस्पर्धी बनकर कोई राज्य करता है ? हे प्रभु, अविनयी के प्रति भ्रातृ-प्रेम रखना एक हाथ से ताली बजाने जैसा है। गणिका तुल्य स्नेहरहित बाहुबली पर राजा भरत स्नेहपरायण है ऐसा कहकर आप हमें रोक सकते हैं; किन्तु समस्त शत्रों को जय कर ही मैं अयोध्या नगरी में प्रवेश करूंगा। ऐसे निश्चयकारी चक्र को प्राप निवारित करेंगे अर्थात् समझायेंगे ? भ्राता रूपी शत्रु बाहुबली की उपेक्षा किसी प्रकार उचित नहीं है। इस सम्बन्ध में आप अन्य मन्त्रियों का मत भी पूछिए।'
(श्लोक २३९-२५२) . सुषेण का कथन सुनकर महाराज ने अन्य मन्त्रियों की ओर देखा। तब वाचस्पति-से ज्ञानी मुख्यमन्त्री बोले-'सेनापति ने जो कुछ कहा है ठीक ही कहा है-ऐसा कहने का साहस अन्य किसी में भी नहीं है। जो पराक्रम और प्रयत्न के भीरु होते हैं वे ही स्वामी के प्रताप की उपेक्षा करते हैं। स्वामी जब स्व-प्रताप के लिए प्राज्ञा देते हैं तब सामान्य अधिकारीगण प्रायः स्वार्थानुसार उत्तर देते हैं और अपने व्यसन की वृद्धि करते हैं; किन्तु सेनापति तो वायु जिस प्रकार अग्नि को वद्धित करती है उसी प्रकार आपके प्रताप को ही वद्धित कर रहे हैं। हे स्वामिन्, सेनापति चक्ररत्न की तरह अपरा. जित एक भी शत्रु रहते सन्तुष्ट नहीं होंगे । अतः अब आप देरी न करें। जिस प्रकार आपकी आज्ञा से सेनापति हाथ में दण्ड लेकर शत्रु को विताड़ित करते हैं उसी प्रकार प्रयारण भेरी बजवाइए। सुघोषा के शब्द से जैसे सभी देव एकत्र हो जाते हैं उसी भांति प्रयाण भेरी के शब्द से वाहन और परिवार सहित सैनिक उपस्थित हो जाएं और सूर्य की तरह उत्तर दिशा में अवस्थित तक्षशिला की