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उन्हें अपना पितृ-वैर का बदला चुकाना है । बाहुबली की सेना के अग्रभाग में युद्धाभिलाषी ये किरात ही इस ओर जो हमारी सेना पाएगी उनके विनाश के लिए पर्याप्त हो रहे हैं। यहां तो मुझे एक व्यक्ति भी ऐसा दिखाई नहीं पड़ा जो युद्ध के लिए तैयार नहीं और बाहुबली का भक्त नहीं। यहां के तो हल चलाने वाले किसान भी वीर और स्वामिभक्त हैं। यह इस भूमि का प्रभाव है या बाहुबली के गुणों का ? सामन्त और सैनिकों को तो वशीभूत किया जा सकता है; किन्तु यहां की तो धरती ही बाहुबली के गुणों से आकृष्ट होकर उनकी पत्नी बन गई है। मुझे तो लगता है बाहुबली की सेना के सम्मुख चक्री की सेना तो अग्नि के सम्मुख घास के गट्ठर-सी है । बाहुबली की सेना के मागे चक्री की सेना तुच्छ है । महावीर बाहुबली के सम्मुख चक्री स्वयं ही ऐसे लगते हैं जैसे अष्टापद के सम्मुख हस्ती शावक । यद्यपि पृथ्वी पर चक्रवर्ती और स्वर्ग में इन्द्र बलवान होते हैं; किन्तु मुझे तो ऋषभदेव के ये कनिष्ठ पुत्र बाहुबली ही दोनों के अन्तर्वर्ती या दोनों के उर्ध्ववर्ती अर्थात् दोनों से अधिक मालम होते हैं। बाहबली की एक थप्पड़ के आगे चक्री का चक्र और इन्द्र का वज्र निष्फल है। इस बाहुबली से विरोध करना तो भालू के कान पकड़ना और सर्प की मुष्ठि में लेने जैसा है। बाघ जैसे एक मृग को पकड़कर सन्तुष्ट हो जाता है उसी प्रकार इस सामान्य भूमि को लेकर ही सन्तुष्ट बने बाहुबली का अपमान करना व्यर्थ ही शत्रु बनाना है। अनेक राजाओं की सेवाओं से भी सन्तुष्ट न होकर बाहुबली को सेवा के लिए बुलाना तो केशरी सिंह को वाहन होने के लिए आमन्त्रित करना है। स्वामी के हिताकांक्षी मन्त्रियों सहित मुझे भी धिक्कार है जो मैंने शत्रु-सा आचरण किया। लोग कहेंगे सुवेग ने ही वहां जाकर लड़ाई करवाई है। हाय, गुणों को दूषित करने वाले इस दौत्य कर्म को ही धिक्कार है। राह में इसी प्रकार सोचता-विचारता सुवेग कई दिनों पश्चात् अयोध्या पहुंचा। द्वारी उसे सभागह में ले गया। वहां चक्री को प्रणाम कर करबद्ध होकर सुवेग उनके सम्मुख जा बैठा । तब चक्री ने पूछा- 'सुवेग मेरा अनुज बाहुबली कुशल तो है न ? तुम बहुत जल्दी लौट आए इसलिए मैं क्षुब्ध हूं। क्या बाहुबली ने तुम्हारा अपमान किया है जो तुम इतनी जल्दी लौट आए ? मेरे भाई की