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वीरवृत्ति दूषित होते हुए भी यह उसके योग्य ही है ।'
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( श्लोक १९४ - २१२ ) सुवेग बोला- 'देव, आपके समान अत्यन्त पराक्रमशाली बाहुबली को क्षति पहुँचाए ऐसी शक्ति तो देवों में भी नहीं है । वे आपके अनुज हैं यही सोचकर मैंने पहले उन्हें यहाँ प्रापकी सेवा में आने के लिए हितकारी वचन विनीत भाव से कहे । तदुपरान्त औषधि की तरह तीव्र ; किन्तु परिणाम में हितकारी ऐसे-ऐसे कठोर वाक्य कहे ; किन्तु उन्होंने न मधुर वचनों से न कटु वचनों से आपकी सेवा करना स्वीकार किया । कारण, जब मनुष्य को सन्निपात हो जाता है तब कोई औषधि काम नहीं करती । बलवान बाहुबली इतने अहंकारी हैं कि वे त्रिलोक को तृरणवत् समझते हैं और सिंह की तरह कोई उनका प्रतिद्वन्द्वी हो सकता है यह स्वीकार नहीं करते । मैंने जब सुषेण सेनापति और प्रापकी बात बतायी तो मानो आप दोनों किसी गिनती में ही नहीं हैं यह प्रकट करने के लिए इस प्रकार नाक को संकुचित किया जैसे दुर्गन्ध से नाक संकुचित हो जाती है । जब मैंने कहा - ' महाराज भरत ने छह खण्ड पृथ्वी को जीत लिया है' तो सारी बात सुनकर अपने भुजदण्डों पर दृष्टिपात करते हुए बोले- 'मैं तो अपने पितृ-प्रदत्त राज्य में ही सन्तुष्ट हूँ । इसलिए उधर ध्यान ही नहीं दिया तभी तो भरत ने छह खण्ड पृथ्वी को जय कर लिया ।' सेवा करना तो दूर, निर्भय होकर बाघिन को दुहने के लिए बुलवाने की तरह आपको युद्ध के लिए बुला रहे हैं । प्रापके भाई ऐसे पराक्रमी, मानी और बलवान् हैं कि वे गन्धहस्ती की भांति असह्य हैं । वे अन्य किसी के वीरत्व को सहन नहीं कर सकते। उनकी सभा में इन्द्र के सामानिक देवों की तरह सामन्त राजा भी महापराक्रमी हैं। इसीलिए उनके अभिप्राय भी उनसे भिन्न नहीं हैं। उनके राजकुमार भी राजोचित तेज के अभिमानी हैं । युद्ध के लिए उनके हाथ खुजला रहे हैं । लगता है बाहुबली से दस गुणा अधिक बलवान वे हैं । उनके अभिमानी मन्त्री भी वैसे ही विचार सम्पन्न हैं । कहा भी गया है - जैसा स्वामी होता है वैसा ही उसका परिवार होता है । सती स्त्री जिस प्रकार पर पुरुष को सहन नहीं कर सकती उसी प्रकार उनकी अनुरागी प्रजा इतना भी नहीं जानती कि संसार में और भी कोई राजा है । जो कर देते हैं, जो बेगारी खटते हैं और उस देश के अन्य जनसाधारण भी अपने राजा