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भरत राज्य और जीवन के इच्छुक आपके लिए सेव्य हैं ।'
( श्लोक ८६-१२० ) सुवेग के कथन को सुनकर स्वबल से जगत् के बल को नाश करने वाले बाहुबली मानो द्वितीय समुद्र हों इस प्रकार गम्भीर वाणी में बोले - 'हे दूत ! तुम धन्य हो ! तुम बातचीत करने में अग्रणी हो इसलिए मेरे सम्मुख बोलने में समर्थ हो सके हो । अग्रज भरत मेरे पितृतुल्य हैं, यदि उन्होंने भाई को देखने की इच्छा प्रकट की है तब तो यह उनके योग्य ही हैं; किन्तु मैं इसीलिए उनके पास नहीं गया कि जो सुर-असुर और अन्य राजाओं के ऐश्वर्य से ऋद्धि सम्पन्न हैं वे मुझ से अल्प वैभवशाली द्वारा लज्जित होंगे । साठ हजार वर्षों तक अन्य का राज्य लेने में वे संलग्न रहे यह बात ही उनके छोटे भाइयों का राज्य लेने की व्यग्रता को प्रकट करती है । यदि भ्रातृ-स्नेह ही कारण होता तो भाइयों के पास एक-एक दूत भेजकर वे यह नहीं कहलवाते, राज्य छोड़ो और मेरी सेवा करो - नहीं तो युद्ध करो । लोभी तो हैं; किन्तु हैं बड़े भाई । अतः उनके साथ युद्ध न कर सभी सत्त्ववान् छोटे भाइयों ने अपने पिता के पदचिह्नों का अनुसरण कर लिया है। उनका राज्य ले लेना ही छिद्रान्वेषी तुम्हारे स्वामी की वकधर्मिता को प्रकट करता है । अब वैसा ही स्नेह दिखाने के लिए वाणी प्रपञ्च की सृष्टि करने में तुम जैसे निपुण को भरत ने यहां भेजा है । मेरे छोटे भाइयों ने अपने राज्य उन्हें देकर व्रत ग्रहरण करके जो श्रानन्द उन्हें दिया है वह श्रानन्द मेरे जाने पर क्या उन राज्य- लोभी को होगा ? नहीं होगा । मैं वज्र-सा कठोर और अल्प वैभव होने पर भी भाई का अपमान होगा इस भय से उनकी सम्पत्ति लेना नहीं चाहता । वे फूल से भी कोमल हैं; किन्तु कपटी हैं। तभी तो व्रत ग्रहण करने वाले छोटे भाइयों का राज्य उन्होंने ले लिया । हे दूत, भाइयों का राज्य अपहरण करने वाले भरत की मैं उपेक्षा करता हूं । तभी तो मैं निर्भयों में निर्भय हूँ । बड़ों का विनय करना उचित है;
किन्तु यदि
बड़ा गुणहीन हो तो उसकी विनय करना लज्जास्पद | बड़ा यदि अभिमानी हो, कार्य-प्रकार्य का जिसे भान न हो और विपथगामी हो तो ऐसे गुरुजनों का भी परित्याग कर देना चाहिए। तुम कहते हो कि भारत सहनशील राजा हैं तो मैंने क्या उनके अश्वादि छीन लिए हैं, नगर लूट लिए हैं कि मेरे इस अविनय को वे सहन कर रहे