________________
[२३७ हैं । ऐसे कार्य तो मैं दुर्जनों का प्रतिकार करने के लिए भी नहीं करता । तभी तो कहा गया है - विवेकपूर्वक कार्य करने वाला सज्जन क्या दुष्टों के कथन से कभी दूषित हुआ है ? मैं इतने दिनों नहीं गया । वे क्या निःस्पृह होकर कहीं चले गए थे कि अब लौट आए हैं ? अतः मुझे उनके पास जाना होगा । वे तो भूत की तरह छिद्रान्वेषी हैं । फिर भी मैं सभी स्थान पर सावधान और निर्लोभ रहता हूं । मेरी कौन-सी भूल ग्रहण करेंगे ? मैंने भरतेश्वर से न कोई राज्य लिया है न अन्य कोई वस्तु । फिर वे मेरे स्वामी कैसे हैं ? जब उनके और मेरे स्वामी ऋषभदेव ही हैं तब उनसे मेरा स्वामी सेवक सम्बन्ध कैसे सम्भव है ? मैं तेज का कारण हूँ । मेरे पास आने पर उनका तेज कैसे टिकेगा ? कारण, तेजस्वी सूर्य के उदित होने पर अग्नि का तेज नहीं रहता । असमर्थ राजागरण स्वयं स्वामी होने पर भी भरत को स्वामी कहकर उनकी सेवा करते हैं क्योंकि वे उन निर्बल राजानों को पुरस्कार और दण्ड देने में समर्थ हैं । यदि मैं भ्रातृ-स्नेहवश उनकी सेवा करूँ फिर भी उस सेवा का सम्बन्ध उनके चक्रवर्तीत्व के साथ जुड़ेगा । कारण, लोगों का मुँह बन्द नहीं किया जा सकता । मैं उनका निर्भय भाई हूँ, वे मुझे आज्ञा दे सकते हैं; किन्तु उनमें कौटुम्बिक - स्नेह का अवसर कहां ? वज्र द्वारा वज्र विनष्ट नहीं होता । वे सुरासुर औौर मानवों की सेवा से प्रसन्न हो सकते हैं। उससे मुझे क्या ? सज्जित रथ भी सरल मार्ग पर ही चल सकता है । वह यदि खराब राह पर जाएगा तो टूट जाएगा । इन्द्र पिताजी के भक्त हैं । इसलिए भरत को पिताजी का ज्येष्ठ पुत्र समझकर अपने अर्द्धसिंहासन पर बैठाते हैं । इसमें भरत के लिए अभिमान की कौन-सी बात है ? यह सत्य है कि भरत रूपी समुद्र में अन्य राजागरण सैन्य सहित एक मुष्ठि सड़े गेहूँ के छिलके की तरह हैं; किन्तु मैं असह्य तेज सम्पन्न उस समुद्र के लिए बड़वानल तुल्य हूँ । सूर्य के तेज में जैसे समस्त तेज लीन हो जाते है उसी प्रकार राजा भरत भी अश्व, हस्ती, पदातिक और सेनापति सहित मुझमें लय हो जाएँगे । बाल्यकाल में हस्ती की तरह मैंने उनका पैर पकड़ कर मिट्टी के ढेले की तरह आकाश में उछाल दिया था । खूब दूर आकाश में जाने के पश्चात् नीचे गिरते समय कहीं उनकी मृत्यु न हो जाए श्रतः फूल की तरह उन्हें झेल लिया था; किन्तु अब अपने द्वारा विजित राजाओं की चाटुकारिता