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वादर ।
और वादर दो भेद हैं । वनस्पतिकाय के भी दो भेद हैं : प्रत्येक और साधारण । साधारण वनस्पति के फिर दो भेद हैं : सूक्ष्म और ( श्लोक १६१-१६२ ) यस जीव के चार भेद होते हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय | पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं : संज्ञी व असंज्ञी | ( श्लोक १६३ )
जो मन और प्राण को प्रवृत कर शिक्षा, के तात्पर्य को ग्रहण कर सकते हैं वे संज्ञी हैं, जो
प्रसंज्ञी हैं 1
उपदेश और वाक्य इसके विपरीत हैं
( श्लोक १६४ )
इन्द्रियाँ पाँच हैं : त्वचा (स्पर्श), रसना ( जिह्वा), नासिका (वाण), चक्षु (प्राँखें), श्रोत्र (कान) ।
त्वचा या स्पर्शेन्द्रिय का कार्य है स्पर्श करना, रसना का कार्य है स्वाद ग्रहण करना, नासिका का कार्य है सूँघना अर्थात् प्राघ्राण लेना, चक्षु का कार्य है देखना और श्रोत्र का कार्य है सुनना ।
( श्लोक १६५ ) कीट, शंख, केंचग्रा, जोंक, कर्पादिका, सुत्ही नामक जलजीव आदि बेइन्द्रिय हैं । ( श्लोक १६६ ) , खटमल चींटी ग्रादि तेइन्द्रिय जीव है | पतंगा, मच्छर, भौंरा, मक्खी प्रादि चउरिन्द्रिय जीव है | ( श्लोक १६७ )
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जलचर (मछली, मगर आदि), स्थलचर (गाय, भैंसादि पशु), खेचर (कबूतर, तीतर, कौश्रा आदि पक्षी), नारक ( नरक में उत्पन्न जीव), देव (स्वर्ग में उत्पन्न जीव) और मनुष्य पंचेन्द्रिय जीव हैं । ( श्लोक १६८ )
उपर्युक्त जीवों की हत्या करना, शारीरिक और मानसिक क्लेश देना हिंसा है। हत्या नहीं करना अभयदान है । जो अभयदान देता है वह चार पुरुषार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) दान देता है । कारण जीवित प्राणी पुरुषार्थ प्राप्त कर सकता है । जीव मात्र को राज्य, साम्राज्य यहाँ तक कि स्वर्ग की अपेक्षा भी अपना जीवन afar प्रिय होता है । इसीलिए कीचड़ का कीट और स्वर्ग का इन्द्र इन दोनों को ही प्रारण-हानि का भय एक-सा ही होता है ।