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वासुदेव होता है, चक्रवर्ती होता है, देवता होता है, इन्द्र होता है, ग्रैवेयक होता है और अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र होता है। इतना ही नहीं धर्म के ही प्रभाव से तीर्थङ्कर भी होता है। ऐसा क्या है जो धर्म के प्रवास से प्राप्त नहीं किया जा सकता ?
(श्लोक १४०-१५१) 'दुर्गति में पतित जीव को जो धारण करता है उसी का नाम धर्म है। धर्म चार प्रकार का होता है : दान, शील, तप और भावना ।
(श्लोक १५२) दान तीन प्रकार का होता है । यथा- ज्ञानदान, अभयदान और धर्मोपग्रह दान ।
_(श्लोक १५३) जो धर्म नहीं जानता, उन्हें उपदेश देना, ज्ञानार्जन के साधन जुटा देना ज्ञानदान है। ज्ञानदान से जीव अपने हित-अहित को समझता है। हिताहित को जानकर जीवादि तत्त्व को अवगत कर विरति या वैराग्य को प्राप्त करता है। ज्ञानदान से जीव उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त कर समस्तलोक का कल्याण साधन कर लोकाग्रावस्थित सिद्धशिला पर प्रारूढ़ होता है अर्थात् मोक्ष प्राप्त करता
(श्लोक १५४-१५६) अभयदान का अर्थ है मन वचन काया से जीव-हिंसा नहीं करना, करवाना एवं कोई करे तो उसका अनुमोदन नहीं करना ।
(श्लोक १५७) जीव दो प्रकार के हैं : स्थावर और त्रस । इनके भी दो भेद हैं : पर्याप्त और अपर्याप्त ।
(श्लोक १५८) 'पर्याप्त भी छह प्रकार के होते हैं : आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वास-प्रश्वास, भाषा और मन ।
(श्लोक १५९) एकेन्द्रिय जीव के प्रथम चार पर्याप्तियाँ होती हैं। बेइन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक जीवों की भी प्रथम चार पर्याप्तियाँ होती हैं ।
(श्लोक १६०) एकेन्द्रिय स्थावर जीव पाँच प्रकार के होते हैं : पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय । इनमें चार के सूक्ष्म