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________________ 'मैं ऐसा ही अन्न-जल मुनियों को दूंगा' -- कहते हुए श्रेष्ठी प्राचार्य को प्रणाम कर स्व-ग्रावास को लौट गए। (श्लोक १३६) मनिगरण भिक्षा लेने श्रेष्ठी के आवास पर गए; किन्तु दैववशतः श्रेष्ठी के आवास पर ऐसा कुछ नहीं मिला जिसे मुनिगण ग्रहण कर सकते । तव श्रेष्ठी इधर-उधर देखने लगे-सहसा उनकी दृष्टि उनके निर्मल अन्तःकरण की भाँति ताजे घी पर पड़ी। __(श्लोक १३७-३८) श्रेष्ठी ने मनियों से पूछा- क्या यह घी आपके काम प्रा सकता है ?' मुनियों ने 'पा सकता है' कहते हुए भिक्षा-पात्र श्रेष्ठी के सम्मुख रख दिया। (श्लोक १३९) _ 'मैं धन्य हुआ, कृतार्थ हुया, कृतकृत्य हुआ' ऐसा चिन्तन करते-करते श्रेष्ठी का शरीर रोमांचित हो गया। उन्होंने स्व-हाथों से वह ही मुनियों के पात्र में डाल दिया। तदुपरान्त साश्रु नेत्रों से उनकी वन्दना की। नानो उसी प्रानन्दाश्रु से उन्होंने पुण्यरूप अंकुर अंकुरित कर लिया । मुनि भी समस्त कल्याण एवं सिद्धि के सिद्धिमन्त्र स्वरूप 'धर्म प्राप्त हो' कहकर आशीर्वाद देते हुए अपने कुटीर को लौट गए। धनश्रेष्ठी ने मोक्ष रूप वृक्ष का दुर्लभ बीज व सम्यक्त्व रूप बीज को प्राप्त किया। सन्ध्या समय श्रेष्ठी पुनः मुनियों के निवास स्थान पर गए और प्राचार्य की वन्दना की। फिर उनकी अनुमति लेकर-करबद्ध बने उनके सामने बैठ गए। धर्मघोष सूरि ने श्र त केवली की भाँति मेघ मन्द्र आवाज में उन्हें कहा-'धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है। धर्म ही स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करता है एवं संसार अटवी को पार करने का पथ प्रदर्शित करता है। धर्म माता की भाँति पोषण करता है, पिता की भाँति रक्षा करता है, मित्र की भाँति प्रसन्न करता है, बन्धु की भाँति आनन्द देता है. गुरु की भाँति उज्ज्वल गुण से भूषित कर उच्च स्थान देता है और प्रभु की भाँति प्रतिष्ठित करता है। धर्म सुख का प्रासाद है, शत्रुब्याह के लिए कवच तुल्य है, शीतोत्पन्न जड़ता को विनष्ट करने में प्रातप तुल्य होने के साथ ही पाप के मर्म का ज्ञाता है। धर्म प्रभाव से जीव राजा होता है, बलदेव होता है,
SR No.090513
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size24 MB
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