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कोई कायोत्सर्ग में अवस्थित था। कोई पागम का अध्ययन कर रहा था, कोई गुरु की सेवा कर रहा था, कोई धर्म कथा सुना रहा था। कोई अनुज्ञा दे रहा था, कोई तत्त्व समझा रहा था।
(श्लोक १२२-२४) श्रेष्ठी ने पहले धर्मघोष प्राचार्य की एवं बाद में अन्यान्य मुनिवरों की वन्दना की। प्राचार्य ने 'जैन धर्म प्राप्त हो' कहकर श्रोष्ठी को आशीर्वाद दिया।
(श्लोक १२५) श्रेष्ठी आचार्य के चरण-कमलों के पास राजहंस की भाँति प्रसन्नतापूर्वक बैठ गया और बोला- हे भगवन्, मैंने मैं आपको मेरे साथ ले जाऊँगा, ऐसा, कहा था; किन्तु मेरा वह वाक्य शरतकाल के मेघाडम्बर की भाँति ही मिथ्या और आडम्बर मात्र ही था। कारण उस दिन से लेकर आज तक न तो मैंने अापकी दर्शन-वन्दना की और न ही अन्न-जल और वस्त्रदान से आपका सत्कार किया । जाग कर भी मैं सोया था। मैंने आपकी अवज्ञा की है और अपना वचन भंग किया है। हे भगवन् ! इस प्रमाद के लिए आप मुझे क्षमा करें। सर्वदा सब कुछ सहन करते हैं इसीलिए महात्मागरण पृथ्वी की भाँति सर्वसह होते हैं।' (श्लोक १२६-१३०)
प्रत्युत्तर में आचार्य बोले-'हे सार्थवाह, तुमने पथ में हिंस्र पशुओं से मेरी रक्षा की है। सर्वप्रकार से मेरा सम्मान किया है । तुम्हारे साथ जाने वाले लोगों ने ही हमें अन्न-जल दिया है। तभी तो हमें कोई असुविधा नहीं हो पाई। अत: तुम मन में बिल्कुल क्षोभ मत करो।'
(श्लोक १३१-१३२) श्रेष्ठी बोले-'सत्पुरुष तो सर्वत्र गुण ही देखते हैं । यही कारण है कि अपराधी होने पर भी आप मुझे इस प्रकार कह रहे हैं। किन्तु मैं अपने प्रमाद के लिए सचमुच ही अत्यंत लज्जित हूँ। अव
आप प्रसन्न होकर मुनियों को मेरे यहाँ से भिक्षा लाने के लिए प्रेरित करिए। मैं आपको इच्छानुकूल अन्न-जल दूंगा।'
(श्लोक १३३-१३४) आचार्य बोले-'तुम तो जानते हो हम वही अन्न-जल ग्रहण करते हैं जो हमारे लिए न बनाया गया हो, न बनवाया गया हो और जो जीवरहित हो।'
(श्लोक १३५)