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चक्रवर्ती और दरिद्र वर्षा के जल की तरह आपकी समदृष्टि, प्रीति, सम्पत्ति के एक से ही कारण होते हैं । हे स्वामी, क्रूर कर्मरूपी हिमखण्ड को विचलित करने वाले सूर्यरूप आप हमारे पुण्योदय से पृथ्वी पर विचरण कर रहे हैं । हे प्रभो, व्याकररण में व्याप्त संज्ञा सूत्र की तरह उत्पाद, व्यय, धौव्यमय त्रिपदी आप द्वारा जयवन्त है । हे भगवन्, जो ग्रापकी स्तुति करता है उसका यह जन्म ही शेष जन्म जब है तब जो आपकी सेवा भक्ति करते हैं, प्रापका ध्यान करते हैं उनके विषय में तो कहूं ही क्या ?'
( श्लोक ७७८-७८५ )
इस प्रकार भगवान् की स्तुति एवं उन्हें नमस्कार कर भरतेश्वर ने ईशान कोण में अपने योग्य स्थान ग्रहण किया । तदुपरान्त सुन्दरी भगवान् ऋषभ को वन्दन कर करबद्ध होकर गद्गद् कण्ठ से बोली- ' हे जगत्पति, इतने दिनों तक मैं मन ही मन आपके दर्शन करती थी; किन्तु प्राज बहु पुण्य और भाग्योदय से साक्षात् देख रही हूँ । मृगतृष्णा से मिथ्या सुखपूर्ण संसार रूपी मरुदेश में अमृत सरोवर तुल्य प्रापको बड़े पुण्य से ही प्राप्त किया है । हे जगन्नाथ, आप ममतारहित हैं फिर भी सबके प्रति आपका वात्सल्य भाव है । यदि वह नहीं होता तब इस महा दुःखसमुद्र से उनका उद्धार क्यों करते ! हे प्रभो, मेरी बहन ब्राह्मी और मेरे भतीजे एवं उनके पुत्र भी आपके पथ का अनुसरण कर कृतार्थ हो गए हैं । भरत के प्राग्रह से मैंने इतने दिनों तक व्रत ग्रहण नहीं किया उससे मैं स्वयं ही वंचित रही । हे विश्वत्राता श्रब मुझ-सी दीन का त्राण कीजिए, निस्तार करिए । समस्त गृह को प्रकाशित करने वाला प्रदीप क्या घट को प्रकाशित नहीं करता ? करता ही है । अतः हे विश्व वत्सल, आप मुझ पर प्रसन्न हों और संसार समुद्र को उत्तीर्ण करने के लिए पोतरूपी दीक्षा दें । (श्लोक ७८६-७९४)
सुन्दरी के ऐसे वाक्य सुनकर 'वत्से, तुम धन्य हो' कहकर सामायिक सूत्र उच्चारित कर उसे दीक्षा दे दी । फिर उसे महाव्रत रूपी अटवी से अमृत धारावत् शिक्षामय उपदेश दिया । उसे सुनकर सुन्दरी को लगा जैसे उसने मोक्ष प्राप्त कर लिया है । तत्पश्चात् वह महामना साध्वी, सकल साध्वी के पीछे जा बैठी । प्रभु का उपदेश सुनकर उनके चरण-कमलों में वन्दन कर महाराज भरत श्रानन्दमना अयोध्या को लौट गए । ( श्लोक ७९५-७९८)