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यह सुनकर कल्याणकारी महाराज भरत सुन्दरी से बोले'कल्याणी, तुम क्या दीक्षा लेना चाहती हो ?' सुन्दरी ने प्रत्युत्तर दिया-'हां महाराज ।'
__ (श्लोक ७४७) सुनते ही महाराज भरत बोले-'हाय, प्रमाद व सरलता के कारण मैं आज पर्यन्त इसके व्रत में विघ्नकारी बना रहा। यह कन्या तो अपने पिता की तरह है और उनका पुत्र होकर भी मैं सर्वदा विषय में आसक्त और राज्य में अतृप्त रहा । अायु जलतरंगसी नाशवान है। फिर भी विषयासक्त व्यक्ति यह समझना नहीं चाहता। अन्धकार में चलने के समय जिस प्रकार क्षण-स्थायी विद्युत् के आलोक में पथ दिखाई पड़ता है उसी प्रकार नश्वर आयु में साधु व्यक्ति की तरह मोक्ष साधना करना ही उचित है। मांस, विष्ठा, मूत्र, मल, स्वेद और रोगपूर्ण इस देह को सज्जित करना घर के नालों को सज्जित करना है। हे भगिनी, तुम धन्य हो जो इस शरीर में मोक्ष रूप फल प्रदानकारी व्रत ग्रहण करना चाहती हो । जो चतुर होते हैं वे लवण समुद्र से भी रत्न आहरण करते हैं।' प्रसन्नचित्त महाराज ने ऐसा कहकर सुन्दरी को दीक्षा ग्रहण करने का आदेश दिया । तपोकृशा सुन्दरो यह सुनकर ग्रानन्दित हुई मानो पूष्ट हो गई हो ऐसी उत्साहपूर्ण हो गयी। (श्लोक ७४८-७५४)
__उसी समय जगत् रूपी मयूर के लिए मेघतुल्य भगवान् ऋषभ विहार करते हुए अष्टापद पर्वत पर आए। वहां उनका समवसरण लगा। रत्न सुवर्ण और रौप्य के द्वितीय पर्वत तुल्य उस पर्वत पर देवताओं ने समवसरण की रचना की। वहां बैठकर प्रभु उपदेश देने लगे। गिरिपालकगण ने उसी समय जाकर भरतपति को सूचना दी। इस संवाद को सुनकर मेदिनीपति भरत को जितना आनन्द हुया उतना आनन्द उन्हें छह खण्ड पृथ्वी को जय कर भी नहीं हुआ । प्रभु के आगमन का संवाद लाने वाले अनुचर को बारह कोटि स्वर्ण-मुद्राएं पुरस्कार में दी और सुन्दरी को बोले-'तुम्हारे मनोरथ के मूत्तिमान सिद्धितुल्य जगद्गुरु विहार करते हुए यहां पाए हैं।' फिर दासियों की तरह अन्तःपुरिकाओं द्वारा सुन्दरी का निष्क्रमणाभिषेक करवाया। सुन्दरी ने स्नान कर पवित्र विलेपरण किया। द्वितीय विलेपण की तरह अञ्चल युक्त उज्ज्वल वस्त्र और उत्तम रत्नालङ्कार धारण किए। यद्यपि उसने शील रूप अलङ्कार