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लक्ष्मीगृह में कांकिणी रत्न, चर्मरत्न, मणिरत्न और नव निधियां थीं । अपने नगर में उत्पन्न सेनापति, गृहपति, पुरोहित और वर्द्धकि ये चार नर-रत्न थे । वैताढ्य पर्वत के मूल देश में उत्पन्न गजरत्न और अश्वरत्न थे । विद्याधर श्रेणी में उत्पन्न एक स्त्री - रत्न था । नेत्रों को प्रानन्दप्रदानकारी आकृति में वे चन्द्रमा से सुशोभित होते और दुःसह प्रताप से सूर्य के समान प्रतिभासित होते । पुरुष रूप में उत्पन्न समुद्र हों वैसे उनका अन्तःस्थल दुरधिगम्य था । कुबेर की भांति उन्हें मनुष्यों का प्रभुत्व प्राप्त हुआ था । जम्बूद्वीप जिस प्रकार गङ्गा, सिन्धु आदि नदियों से सुशोभित होता है उसी प्रकार वे पूर्वोक्त चौदह रत्नों से सुशोभित होते थे । विहार करते समय जिस प्रकार ऋषभदेव के पैरों तले नौ स्वर्ण कमल रहते थे उसी प्रकार उनके पैरों तले नौ निधियां रहती थीं । बहुमूल्य क्रीत आत्मरक्षकों की भांति सोलह हजार पारिपार्श्विक देवतानों द्वारा वे परिवृत रहते थे । बत्तीस हजार राजकन्याओं की तरह बत्तीस हजार राजा परिपूर्ण भक्ति से उनकी उपासना करते । बत्तीस हजार नाटकों की तरह बत्तीस हजार देशों की बत्तीस हजार कन्याओं के साथ वे रमण करते थे । संसार में श्रेष्ठ राजा तीन सौ त्रेसठ रसोइयों से उसी प्रकार शोभित थे जैसे तीन सौ तेसठ दिन से वत्सर शोभित होता है । अठारह लिपि प्रवर्तक भगवान् ऋषभ की तरह अठारह श्रेणियोंउपश्रेणियों द्वारा पृथ्वी पर उन्होंने लोक व्यवहार प्रचलित किया था । वे चौरासी लक्ष हस्ती, चौरासी लक्ष घोड़े, चौरासी लक्ष रथ और छियानवे कोटि ग्राम और इतनी हो संख्या के पदातिकों से शोभित होते थे । वे बत्तीस हजार देश और बत्तीस हजार वृहद् नगरों के अधीश्वर थे । निन्यानवे हजार द्रोणमुख और अड़तालीस हजार दुर्ग के वे अधिपति थे । वे प्राडम्बरयुक्त श्रीसम्पन्न चौबीस हजार खर्बट, चौबीस हजार मण्डप और बीस हजार प्राकरों के स्वामी थे । सोलह हजार खेटक पर वे शासन करते थे । वे प्रभु चौदह हजार संवाह और छप्पन हजार द्वीपों के एवं उनचालीस कुराज्यों के नायक थे । इस प्रकार वे समस्त भरत क्षेत्र के शासनकर्त्ता अधीश्वर थे ।
( श्लोक ७०९-७२८)
अयोध्या नगरी में निवास करते समय अखण्ड अधिकारी भरत महाराज अभिषेक उत्सव समाप्त होने पर एक दिन जब निज आत्मियों की याद करने लगे तब अधिकारी पुरुषों ने साठ हजार