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दूर्वार और भयंकर तलवारें म्यान से बाहर निकालने लगे। कुछ किरात यमराज के लघु भ्राता तुल्य दण्ड को उठाने लगे। कोईकोई धूमकेतु की भांति भालों को अाकाश में घुमाने लगे। कोईकोई रणोत्सव में आमन्त्रित प्रेत राजाओं को प्रसन्न करने के लिए मानो शत्रों को शूलो पर चढ़ाएंगे इस प्रकार त्रिशूल धारण करने लगे। कोई शत्रुरूपी पक्षियों का प्राण हनन करने के लिए बाज पक्षियों-सा लौह शैल्य हाथों में लेने लगे। कोई-कोई मानो आकाश को तोड़ना चाहते हैं इस प्रकार अपने-अपने उद्यत हाथों से मुद्गर घुमाने लगे। इस प्रकार युद्ध करने की इच्छा से सभी ने नाना प्रकार के अस्त्रों को धारण किया। कोई भी आदमी अस्त्ररहित नहीं था। युद्ध करने की इच्छा से जैसे वे एक आत्मा वाले हों ऐसे उन्होंने एक साथ भरत की सेना पर आक्रमण किया। शिलावृष्टिकारी प्रलयकालीन मेघों की भाँति शस्त्र-वर्षा करते-करते म्लेच्छ गरण महाराज भरत की सेना के अग्रभाग के साथ तीव्र युद्ध करने लगे। लगता था पृथ्वी से, दिङ मुख से, आकाश एवं चारों दिशाओं से प्रा-पाकर अस्त्र गिरने लगे हैं। दुर्जनों की युक्ति जिस प्रकार सभी को विद्ध करती है इसी प्रकार राजा भरत की सेना में ऐसा कोई नहीं था जो उन भीलों के तीरों से विद्ध न हुप्रा हो। म्लेच्छों के पाक्रमणों से चक्रवर्ती के अश्वारोही समुद्र की उत्ताल तरंग से नदी के अग्रभाग की तरंगें जिस प्रकार पीछे हट जाती हैं उसी प्रकार पीछे हटने लगी। म्लेच्छ रूपी सिंह के तीर रूपी श्वेत नखों से क्षतविक्षत होकर चक्रवर्ती के हस्ती पात स्वर में भयंकर रूप से चिंघाड़ने लगे। म्लेच्छ वीरों के प्रचण्ड दण्ड युद्ध द्वारा बार-बार किए गए प्राघात से भरत की पदातिक सैन्य कन्दुक की भाँति उछल-उछल कर उत्पतित होने लगी। वज्राघात से पर्वत जैसे भग्न हो जाते हैं यवन सेना की गदा के प्रहार से चक्रवर्ती सैन्य के अग्रभाग के रथ भी उसी प्रकार भग्न हो गए। संग्राम रूप सागर में तिमिंगल जाति के मकर से मछलियाँ जिस प्रकार पीड़ित और त्रस्त होती हैं उसी प्रकार वे त्रस्त व पीड़ित होने लगीं। (श्लोक ३५७-३७७)
अनाथों की भाँति पराजित अपनी सेना को देखकर राज्याज्ञा जैसे क्रोध ने सेनापति सुषेण को उत्तेजित कर दिया। उसके नेत्र और मुख लाल हो गए और क्षण मात्र में वे मनुष्य के रूप में साक्षात्