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ध्वजा से चित्रित व्याघ्र, सिंह और सर्प के द्वारा आकाश में विचरण करती खेचरी रमणियों को भयप्रदर्शनकारी और वहद-वहद हस्ती रूप मेघ में दिक्समूह के अग्र भाग को अन्धकारमयकारी राजा भरत अग्रसर होने लगे। उनके अग्रभाग में अंकित मकर मुख यमराज के मुख से स्पर्धा कर रहा था। वे अश्व खुरों के आघात से जैसे धरती को तोड़ रहे हैं और जय वाद्यों पर पतित आघात से जैसे आकाश को टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं ऐसा लगता था । अग्रगामी मंगल तारा में जैसे सूर्य भयंकर लगता है उसी प्रकार अग्रगामी चक्र से भरत भयंकर प्रतीत हो रहे थे।
(श्लोक ३४८-३५२) __उन्हें आते देख भीलगण अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और क्रूर ग्रहों की भाँति वे सभी एकत्र होकर मानो चक्रवर्ती को हरण करने की अभिलाषा से इस प्रकार रोष में बोले-'साधारण मनुष्य की भाँति लक्ष्मी, लज्जा, धैर्य और कीतिरहित यह कौन व्यक्ति अल्प बुद्धि बालकों की तरह मृत्यु की इच्छा कर रहा है। जिसकी पुण्य चतुर्दशी क्षीण हो गई है अर्थात् जो कृष्ण चतुर्दशी की भाँति क्षीण पुण्य हो गया है ऐसा लक्षणहीन यह व्यक्ति मानो मृग ने सिंह की गुफा में प्रवेश किया हो इस प्रकार हमारे देश में आया है । महापवन जिस प्रकार मेघ को छिन्न-भिन्न कर देता है उसी प्रकार इस उद्धत
आकृति विशिष्ट विस्तीर्यमान व्यक्ति को हम भी छिन्न-भिन्न कर दसों दिशाओं में फेंक देंगे।'
(श्लोक ३५२-३५६) इस प्रकार जोर से बोलते-बोलते शरभ जैसे मेघ के सम्मुख गर्जन करता है, दौड़ता है, उसी प्रकार वे राजा भरत से युद्ध करने के लिए प्रस्तुत होने लगे। किरातपतियों ने मछनों की पीठ की हड्डियों द्वारा निर्मित अभेद्य कवच धारण किए । मस्तक पर खड़े केश वाला निशाचरों की सिर लक्ष्मी तुल्य बन्दरों के केश युक्त शिरस्त्राण पहने । युद्ध करने का अवसर पाने के आनन्द में उनके शरीर इस प्रकार फूलने लगे कि उनके कवचों के तार टूटने लगे। उनके खड़े केश वाले मस्तक से शिरस्त्राण खिसक-खिसक कर गिर रहे थे। मानो मस्तक कह रहा था हमारी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । कुछ किरात क्रोधावेश में यमराज की भकुटि की तरह वक्र और शृग द्वारा निर्मित धनुष को सहज ही प्रत्यंचा पर रोपण करने लगे। कुछ किरात जय लक्ष्मी की लीला-शय्या तुल्य रण में